ऋषि पंचमी व्रत कथा सम्पूर्ण | Rishi Panchami Vrat Katha
जाने अनजाने में हुए पापों को दूर करने के लिए ऋषि पंचमी व्रत कथा, व्रत का माहात्म्य, पूजा विधि और सम्बंधित कथाएँ आरती एवम भजन सहित सम्पूर्ण
व्रत का विधान एवं माहात्म्य
* यह व्रत भादों मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी को स्त्री-पुरुष दोनों के करने के लिए होता है। व्रत करने वाला इस दिन सूर्योदय से पहले ब्रम्हमुहूर्त मे उठकर अपने नित्य कर्म से निव्रत होवे तथा फिर किसी विद्वान आचार्य को बुलाकर उनके निर्देशन मे भगवान का एकाग्रचित्त से पूजन करे।
* श्रद्धापूर्वक पंचामृत से स्नान कराकर भगवान को नैवेद्य अर्पण करे तथा समस्त पूजन की सामग्रियों से यथाविधि पूजन करें। तत्पश्चात भगवान का प्रसाद समस्त बंधु-बांधव तथा कथा श्रवण करने वालों को दे और स्वयं प्रसाद पावें। व्रत के दिन रात्रि मे जागरण करना सर्वश्रेष्ठ है।
* इस प्रकार नियमपूर्वक व्रत तथा पूजन करने से, सर्व सुख, आरोग्यता, समृद्धि, यश, धन-धान्य, संतान, वैभव तथा विजय की प्राप्ति होती है। अंत में, सायुज्य मोक्ष की प्राप्ति होती है।
व्रत के पूजन की सामग्री
१- कदली स्तम्भ,
२- आम्र पल्लव,
३- पंच पल्लव,
४- कलश,
५- यज्ञोपवीत,
६- लाल-वस्त्र,
७- सफ़ेद-वस्त्र,
८- तंदूल ( चावल),
९- कुमकुम (रोली),
१०- गुलाल,
११- मंगलीक (गुड़),
१२- धूप,
१३- पुष्पाणी,
१४- तुलसीदल,
१५- श्रीफल,
१६- ताम्बूल,
१७- कई तरह के फल,
१८- माला,
१९- पंचामृत,
२०- नैवेध्यार्थ ( प्रसाद पदार्थ),
२१- गोधूम चूर्ण,
२२- गुड़ान्न,
२३- रंगीन आटा सर्वतोभद्र चक्र हेतु,
२४- दीपक,
२५- भगवान की मूर्ति,
२६- लौंग,
२७- इलाइची,
२८- दूर्वा (दूब),
२९- कर्पूर (कपूर),
३०- केशर ।
३१- मण्डप उपयोगी साहित्य,
३२- देव-देवियों के चित्र,
३३- द्रव्य दक्षिणा,
३४- बंदवार ।
* व्रत करने वाले स्त्री-पुरुष का धर्म है कि वह सूर्योदय के पूर्व ही बिस्तर को त्याग दें और अपने नित्य कर्मो से निव्रत होकर गंगाजी (गंगा जल मिश्रित जल) में स्नान करें। जहां गंगाजी नहीं हैं, वहाँ पास की नदी में स्नान करें और यदि सरोवर भी निकट न हो तो कुएं के शुद्ध जल से स्नान करें।
* जब स्नान करके पवित्र हो जाये तो रेशमी वस्त्र को धारण करे। मन में व्रत का निश्चय करें और शुद्ध मन होकर पंचामृत बनाएँ।
* तब सप्तऋषियों को उस पंचामृत मे स्नान करावें। तत्पश्चात शुद्ध जल से स्नान कराके शुद्ध वस्त्र से उनके पिण्ड को सुखाकर आसन पर विराजमान कराएं। तत्पश्चात सप्तऋषियों के निमित्त चन्दन, अगर कपूर आदि की गंध देवे। कोरे सकोरे में अग्नि रखकर धूप दे, फूल चढ़ावे और उनके सम्मुख दीपक जलाकर कलश के सम्मुख रखें।
* ऋषिवरों को नवीन वस्त्र और जनेऊ समर्पित करें, उत्तम मिष्ठान और फल का भोग लगावें और अर्घ्य दें। सप्तऋषियों का ध्यान हृदय मे धारण करें और हाथ जोड़कर उनसे प्रार्थना करें - "आप मुझ पर कृपा करें और मेरे द्वारा निवेदित इस पूजा को अंगीकार करें। शेष दिवस भगवान की कीर्ति का गान करें। दिन भर कुछ न खाएं। व्रत रखे संध्या समय शरीर को पुनः शुद्ध करें और भगवान का ध्यान धारण करें।
* अपने लिए जो फलाहार बनाया हो उसे भगवान को समर्पित करें और तब सात्विक भोजन को गृहण करे। भोजन ग्रहण करके देव-दर्शनों को जायें। रात्रि समय भगवान की लीलाओ को पढे अथवा श्रवण करें। ब्रम्ह्चर्य से रहें। मन ही मन सप्तऋषियों का ध्यान धारण करें और उनके निर्मल चरित्र को गातें रहे। जो स्त्री-पुरुष इस प्रकार इस महान व्रत को धारण करते हैं, वह इस लोक में पापों के प्रक्षालन हो जाने से धन, धान्य, पुत्र, पौत्र आदि समस्त सुखों का सेवन करते हैं और अंत समय स्वर्ग को प्राप्त होते हैं। इस व्रत की कथा इस प्रकार है।
Rishi Panchami Katha
* एक समय राजा सिताष्व धर्म का अर्थ जानने की इच्छा से भगवान श्री ब्रम्हाजी के समीप गए और उनके चरणों में शीश नवाकर बोले- हे आदिदेव! आप समस्त धर्मो के प्रवर्तक और गूढ धर्मों को जानने वाले हो। आपके मुख से धर्म-चर्चा श्रवण कर मन को महान शांति मिलती है।
* भगवान के चरण कमलों मे प्रीति बढ़ती है। वैसे तो आपने सदा नाना प्रकार के व्रतों के विषय में उपदेश दिये हैं। अब मै आपके मुखारविंद से उस श्रेष्ठ व्रत को सुनने की अभिलाषा रखता हूँ जिसके करने से प्राणी के समस्त जाने-अनजाने पापों का नाश हो जाता है।
* राजा के इन वचनों को श्रवण करके श्री ब्रंहाजी ने कहा- हे नृपश्रेष्ठ ! तुम्हारा प्रश्न अति उत्तम और धर्म में प्रीति उपजाने वाला है। मै तुमको गूढ और समस्त पापों को नष्ट करने वाला, वह सर्वोत्तम व्रत सुनाता हूँ। यह व्रत ऋषि पंचमी के नाम से विख्यात है।
* इस व्रत को ग्रहण करने वाला प्राणी अपने समस्त पापों से सरलता से छुटकारा पा लेता है और उसे नर्क नहीं जाना पड़ता है। इस व्रत का एक अति पुरातन इतिहास है। उसी इतिहास को अब मै तुम्हारे सम्मुख कहता हूँ। उत्तंक नामक ब्राह्मण अपनी पतिव्रता पत्नी के साथ निवास किया करता था।
* उस ब्राह्मण दंपति के परिवार मे एक पुत्र और एक पुत्री थी। पुत्र का नाम सुविभूषण था जो अनेक शास्त्रो का अध्ययन कर बहुत तीक्ष्ण बुद्धि वाला था। उसने अपनी अल्पायु में ही चारो वेदों का अध्ययन कर लिया था। हे राजन ! उत्तंक ने अपनी पत्नी के कहने से अपनी पुत्री का विवाह एक सुयोग्य ब्राह्मण कुमार के साथ कर दिया। किन्तु विधि का विधान कुछ ऐसा था की वह कन्या विवाह होने के पश्चात विधवा हो गई। अब ब्राह्मण-कन्या अपने धर्म का पालन करती हुई अपने पिता के यहाँ रहने लगी।
* अपनी कन्या के दुख से दुखी होकर एक दिन उत्तंक अपने घर को अपने पुत्र की देख-रेख मे छोड़ गया और अपनी स्त्री और कन्या को लेकर गंगाजी के किनारे एक आश्रम बनाकर रहने लगा। वह वहाँ वेदों का पठन-पाठन करने में ब्यस्त हो गया। तब उसके पास कुछ ब्राह्मण कुमार भी वेदों को पढ़ने के लिए आ गये। कन्या अपने धर्म का पालन करती हुई अपना जीवन निर्वाह कर रही थी।
* वह दत्तचित्त हो माता-पिता की सेवा किया करती थी। एक दिन कार्यों से थकित हो वह एक शिला पर आराम करने के लिए लेट गयी। थकान अधिक होने के कारण उसको अपने शरीर की सुधि न रही। ईश्वर की लीला ऐसी हुई कि अर्धरात्रि के समय यकायक उसके शरीर मे कीड़े उत्पन्न हो गये।
* शिष्यो ने उसे वस्त्र विहीन तथा उसके शरीर पर कीड़ो को रेंगता देखा तो उन्होनों अपनी गुरु पत्नी को जाकर यह समाचार बताया। अपनी कन्या के शरीर मे कीड़े पड़ जाने की बात को सुनकर ब्राह्मणी विलाप करती हुई उस शिला के पास पहुँची। वहाँ उसकी कन्या सचमुच ही वस्त्र विहीन तथा बेसुध पड़ी थी।
* उसके शरीर पर हजारों कीड़ों को रेंगता देखकर वह अत्यन्त दुखी हुई और चीख-चीख कर रोने लगी। इस प्रकार विलाप करते-करते वह ब्राह्मणी भी अचेत अवस्था को प्राप्त हो गयी। किन्तु ज्योंही उसे चेत हुआ तो उसने अपनी कन्या को गोदी मे उठाया और अपने पति उत्तंक ऋषि के सन्मुख ले जाकर रख दिया।
* कन्या की उस दशा को देखकर वह ब्राह्मणी अपने पति से बोली - हे स्वामी ! आप कृपा कर मुझे यह बतलायें कि आपकी इस साध्वी कन्या कि दुर्दशा किस दुष्कर्म के कारण हुई है।
* भार्या की इस बात को सुन करके उत्तंक ऋषि अपने नेत्रो को बंद करके शांत होकर हृदय मे भगवान का ध्यान करने लगे और उन्होने अपनी अन्तर्ज्ञान शक्ति के द्वारा कन्या के पूर्व जन्म के समस्त वृतांत को जान लिया।
* तब अपनी नेत्रों को खोलकर वे कहने लगे - हे प्रिये ! हमारी यह कन्या अपने पूर्व के सातवें जन्म मे एक ब्राह्मणी थी। उस समय इसने एक बार रजस्वला होते हुये भी घर के घड़े आदि बर्तनों को छू लिया था। बस, उसी पाप के कारण आज इसके शरीर में कीड़े उत्पन्न हो गये हैं।
* शास्त्रनुसार रजस्वला स्त्री पहले दिन चांडालिनी, दूसरे दिन ब्रम्हहत्यारिणी, तीसरे दिन एक धोबिन के समान होती है और चौथे दिन वह स्नान करने के पाश्चात शुद्ध होती है। शुद्ध होने के बाद भी इसने अपनी सखियों के साथ ऋषि पंचमी व्रत को होता देखकर भी उसमें रुचि नहीं ली।
* व्रत के उत्सव के दर्शन मात्र से तो इस जन्म में इसको उत्तम ब्राह्मण कुल प्राप्त हुआ है। मुनि के इस प्रकार के वचनों को श्रवणकर उनकी पत्नी बोली - हे स्वामी ! जिस व्रत के दर्शन मात्र से ही इसे आपके उत्तम कुल मे जन्म तो प्राप्त हुआ परंतु जिसका तिरस्कार करने से शरीर मे कीडों से भर गया, ऐसे महान और आश्चर्यजनक व्रत को आप कृपा करके मुझे अवश्य बतायें।
* तब उंत्तक ऋषि आनंदित होकर बोले - हे भद्रे ! यह व्रत समस्त व्रतो मे उत्तम है। तुमने इस व्रत की जानकारी चाही है जो समस्त प्राणी मात्र के लिए लाभदायक होगी। इसके प्रभाव से समस्त पापों का नाश हो जाता है। इस व्रत को करने वाला निश्चय ही दैहिक, भौतिक और दैविक तीनों प्रकार के कष्टों से छुटकारा पाता है। व्रत करने वाली स्त्री अपने सौभाग्य को प्राप्ति करती है।
* यह चमत्कारी व्रत भद्रपद मास के शुक्लपक्ष की पंचमी के दिन होता है। व्रत करने वाली स्त्री को चाहिए कि वह गंगा या उसके समान पवित्र नदी अथवा कुएं के जल से स्नान करे और नित्य कर्मो को करने के बाद विधि विधान से पंचामृत बनाकर शृद्धा और भक्ति सहित सप्तऋषियों को उससे स्नान कराये और फिर चन्दन, अगर कपूर आदि गंध तथा पुष्प धूप दीप आदि निवेदित करें।
* पहले भूमि को गौ के गोबर आदि से शुद्ध करके उसपर अष्टदल कमल बनाकर अरुंधति सहित सप्तऋषियों कि स्थापना कि जाती है। पवित्र वस्त्रों और यज्ञोपवीतों को अर्पित करे , उत्तम फलों और मिष्ठान से उनका भोग लगावें तथा अर्घ्य दे।
* अरुंधति सहित सप्तऋषि यथा कश्यप, अत्रि, भारद्वाज, विश्वामित्र, गौतम, जमदग्नि और वशिष्ट जी का ध्यान करके इस प्रकार प्रार्थना करे - हे ऋषिवरों ! आप सभी मेरी पूजा को स्वीकार करें तथा मुझे कृतार्थ करें। आप मेरे द्वारा निवेदित किए हुये अर्घ्य, भोग आदि को स्वीकार करे।
* जो स्त्री ब्रम्ह्चर्य धारण करती हुई इस व्रत को करेगी, वह उत्तम वांक्षित फल को प्राप्त करेगी। इसमे सन्देह नहीं है। इस व्रत का फल समस्त तीर्थों के दर्शन और संसार के समस्त दानों का फल प्राप्त करेगी, वह उत्तम फल को प्राप्त करेगी। इसमे सन्देह नहीं है। सुख पाने की इच्छा से जो स्त्री इस व्रत को धारण करती है, वह स्वयं सुंदर स्वरूप और उत्तम गुणो से परिपूर्ण हो पुत्र-पौत्र आदि को पाती है।
* इस व्रत को करते हुये वांछित फल प्राप्त करने के पश्चात इस व्रत का उद्यापन भी करना चाहिए। चतुर्थी के दिन एक बार भोजन करके पंचमी के दिन व्रत आरंभ करें।स्नानादि करके गोबर से लीपकर उस स्थान पर सर्वतो भद्र चक्र बनाकर पहले कलश की स्थापना करें। समस्त पूजा सामर्गी एकत्र करे। अष्टदल कमल में सप्तऋषियों की स्थापना करे। षोडशोपचार पूजन, रात्रिजागरण तथा भजन कीर्तन में बिताकर प्रातः ब्राह्मण को भोजन करायेँ व दक्षिणा देकर संतुष्ट करे। UPI से ब्राह्मण को दक्षिणा देने के लिए QR Scan करे।
|| इति हेमाद्रौ ब्रह्ममाण्डे पुराणांतर्गत ऋषि पंचमी की कथा समाप्तम ||
भविष्योत्तर पुराण के अनुसार ऋषि पंचमी की कथा
* एक बार श्रीकृष्ण भगवान से राजा युधिष्ठिर ने प्रश्न किया - हे देवों के देव ! मैंने आपके श्रीमुख से अनेकों व्रतों के महात्म्यों को सुना है।
* अब आप कृपा करके उस पंचमी का उत्तम व्रत सुनावे जिससे समस्त पापों की निवृति होती है। राजा के इन वचनों को सुनकर भगवान श्रीकृष्णजी बोले - हे राजेंद्र ! अब मई तुमको ऋषिपंचमी का उत्तम व्रत सुनाता हूँ जिसको धारण करने से स्त्री समस्त पापों से छुटकारा प्राप्त कर लेती है।
* हे राजन ! जो स्त्री राजस्वला होकर भी घर-गृहस्थी के कामों में प्रवृत्त होती है तथा घर के बर्तनों आदि को जाने-अंजाने छूती है, अवश्य नरक में जाती है।
* अतः चारों वर्णों के लोगों को चाहिए कि वे राजस्वला स्त्री को घर के कार्य न करने दे। क्यूकी पूर्व समय वृतासुर का बध करने के कारण इन्द्र को ब्रह्महत्या का महान पाप लगा था। उस समय ब्रह्माजी ने उस पर कृपा करके उस पाप को चार स्थानों पर बाँट दिया।
* पहला अग्नि कि ज्वाला में, दूसरा नदियों के बरसाती जल में, तीसरा पर्वतों में और चौथा स्त्री कि रज में विभाजित करके उसके पाप कि शुद्धि कर दी।
* बस इसी पाप के प्रभाव के कारण रजस्वला स्त्री पहले दिन चांडालिनी, दूसरे दिन ब्रह्म-हत्यारिणी, तीसरे दिन धोबिन के समान रहती है। चौथे दिन शुद्ध हो पाती है। रजस्वला धर्म में जाने अनजाने उससे जो भी पाप हो जाते है। उनकी शुद्धि के लिए हर स्त्री को ऋषिपंचमी व्रत करना उत्तम है। यह व्रत समान रूप से चारों वर्ण की स्त्रियॉं को करना बताया गया है।
* इसी प्रसंग मे एक प्राचीन कथा का वर्णन करता हूँ। सतयुग मे विदर्भ नगरी में श्येनजित नामक एक राजा हुये हैं। वे प्रजा का पुत्रवत पालन करते थे। उनके समस्त आचरण ऋषियों के समान थे। उनही के राज्य में वेदों का पाठ करने वाला और समस्त जीवों के प्रति उपकारी मनोवृत्ति रखने वाला सुमित्र नामक एक कृषक ब्राह्मण भी था। ब्राह्मण की स्त्री जयश्री अत्यंत पतिवृता थी।
* उस ब्राह्मण के यहाँ अनेक नौकर-चाकर भी सेवारत थे। एक समय वर्षा ऋतु मे जब उसकी स्त्री खेती के कामों मे लगी हुई थी तो वह रजस्वला हो गयी। हे राजन ! उसे अपने रजस्वला होने का भी पता लग गया किन्तु फिर भी घर-बार के काम-काज करती रही। उसने घर गृहस्थी के बर्तनोंआदि सभी को अपने हाथों से छू लिया। कुछ समय पश्चात वे दोनों स्त्री पुरुष अपनी-अपनी आयु भोगकर मृत्यु को प्राप्त हुये।
* जयश्री अपने ऋतु-दोष के कारण कुतिया और पति सुमित्र को रजस्वला स्त्री के संपर्क मे आने के कारण बैल की योनियाँ प्राप्त हुई। क्यूकी ऋतु-दोष के अतिरिक्त इन दोनों का और कोई अपराध नहीं था, इसी कारण उन दोनों का अपने पूर्व जन्म का समस्त विवरण भी याद रहा। वे दोनों कुतिया और बैल के रूप मे उसी नगर मे अपने पुत्र सुचित्र के यहाँ रहने लगे। धर्मात्मा सुचित्र अपने अतिथियों का पूर्ण सत्कार किया करता था।
* अपने पिता के श्राद्ध के दिन उसने अपने घर ब्राह्मणों को जिमाने के लिए नाना प्रकार के भोजन बनवाये। जब उसकी स्त्री किसी काम से रसोई के बाहर गयी हुई थी तो एक सर्प ने रसोई की खीर के बर्तन में विष वमन कर दिया। कुतिया के रूप में सुचित्र की माँ कुछ दूर से यह सब देख रही थी। पुत्र की बहू के आने पर उसने अपने पुत्र को ब्रम्ह हत्या के पाप से बचाने के लिए उस बर्तन में मुख दाल दिया।
* सुचित्र की पत्नी चंद्रवती से कुतिया का यह कृत्य न सहा गया और उसने चूल्हे की जलती लकड़ी निकाल कर कुतिया को मारी। बेचारी कुतिया मार खाकर घर मे इधर-उधर भागी फिरी। चौके मे जो भी जूठन इत्यादि बची रहती थी, वह सब सुचित्र की बहू उस कुतिया के सामने डाल दिया करती थी किन्तु उस दिन क्रोध के कारण उसने वह भी बाहर फिकवा दी और कुतिया को न डाली।
* सब खाद्य पदार्थों को फिकवा कर साफ बर्तनों में सब खाना दुबारा बनवाया तथा ब्राह्मणो को जिमाया। रात्री के समय भूख से ब्याकुल वह कुतिया बैल के रूप मे रह रहे अपने पूर्व पति के पास जाकर बोली - हे स्वामी ! आज तो मै भूख से मारी जा रही हूँ। वैसे तो मेरा पुत्र मुझे रोज खाने को कुछ देता था लेकिन आज तो उसने मुझे कुछ नहीं दिया है। मैंने साँप के विष वाले खीर के बर्तन को अनेक ब्रम्ह हत्याओं के भय से छूकर उनके न खाने योग्य कर दिया था। इसी कारण उसकी बहू ने मुझे मारा और आज खाने को भी कुछ नहीं दिया है।
* तब बैल बोला - हे भद्रे ! तेरे पापों के कारण तो मै भी इस योनि में आ पड़ा हूँ और आज बोझा ढ़ोते-ढ़ोते मेरी कमर भी टूट रही है। मै भी दिन भर खेत में हल मे जुता रहा। मेरे पुत्र ने आज मुझे भी भोजन नहीं दिया और ऊपर से मारा भी खूब है। मुझे इस प्रकार कष्ट देकर उसने मेरे इस श्राद्ध को निष्फल कर दिया है। अपने माता-पिता की इन बातों को उनका पुत्र सुचित्र सुन रहा था।
* उसने उसी समय उनको भरपेट भोजन कराया और फिर उनके दुख से दुखी होकर वह प्रातः वन की ओर चला गया। वन में जाकर ऋषियों से पूछा - हे ऋषीश्वरों ! मेरे माता-पिता किन कर्मों के कारण इन नीच योनियों को प्राप्त हुये हैं और किस प्रकार वे इनसे छुटकारा पा सकते हैं।
* उन वचनों को श्रवण कर सर्वतपा नामक ऋषि उस ब्राह्मण कुमार पर दया करके बोले - पूर्व जन्म में तुम्हारी माता ने अपने उच्छंखल स्वभाव के कारण रजस्वला होते हुये भी घर-गृहस्थी की समस्त वस्तुओं को स्पर्श किया था और तुम्हारे पिता ने तुम्हारी माता को स्पर्श किया। इसी कारण वे कुतिया और बैल की योनि प्राप्त हुये हैं।
* तुमको उनकी मुक्ति के लिए अब सपत्नीक ऋषि पंचमी का व्रत धारण करके तथा उसका फल अपने माता-पिता को अर्पण करना होगा। भादौ मास की शुक्ल पक्ष की जब पंचमी आवे तब मुख शुद्धि करके मध्यान्ह में नदी के पवित्र जल में स्नान करना और फिर नवीन शुद्ध रेशमी वस्त्रो को धारण करके अरुंधती सहित सप्त ऋषियों का पूजन करना।
* सर्वतपा ऋषि के इन वचनों को श्रवण करके सुचित्र ने अपने घर लौट कर ऋषि पंचमी का दिन आने पर पत्नी सहित समस्त विधि-विधान से इस व्रत को किया और उसके पुण्य को अपने माता-पिता को अर्पित कर दिया।
* व्रत के प्रभाव से उसके माता-पिता दोनों ही पशु-योनियों से मुक्त हो गए और दिव्य विमान पर आरूढ़ होकर स्वर्ग चले गये। हे राजन ! इस व्रत को धारण करने से अनेकानेक उत्तम और वांछित फल प्राप्त होते हैं।
* समस्त तीर्थ यात्राओं, समस्त व्रतों और दानों से जितने भी फल प्राप्त हो सकते हैं, वे सब केवल ऋषिपंचमी के व्रत से ही प्राप्त हो जाया करते हैं। जो स्त्री श्रद्धा-पूर्वक धारण करती है, वह समस्त सांसारिक सुखों को पाती है।
* यह व्रत समस्त ऐश्वर्यों को देने वाला है और स्त्रियो के समस्त पापों को नाश करने वाला है, इसमें संशय नहीं है। इस व्रत की कथा को पढ़ने और सुनने वाले भी समस्त पापों से छुटकारा प्राप्त कर सुखो को प्राप्त करते है।
|| इति ऋषि पंचमी व्रत कथा समाप्त ||
आरती
जय सप्तऋषि स्वामी,
जय-जय सप्तऋषि स्वामी ||
भक्तों के दुखहर्ता,
तुम अंतर्यामी ||
जय सप्तऋषि स्वामी,
जय-जय सप्तऋषि स्वामी ||
तीन लोकों में गुरुवर,
तुम पूजे जाते,
स्वामी तुम पूजे जाते |
कृपा तुम्हारी होवे,
आनन्द सुख पाते ||
जय सप्तऋषि स्वामी,
जय-जय सप्तऋषि स्वामी ||
पाप क्षार सब होते,
तुमको जब ध्यावें,
स्वामी तुमको जब ध्यावें |
व्रत पूजा को करके,
व्रत पूजा को करके,
सुख सम्पत्ति पावे ||
जय सप्तऋषि स्वामी,
जय-जय सप्तऋषि स्वामी ||
नृप सिताश्व श्रवणकर,
व्रत विख्यात कियौ,
स्वामी व्रत विख्यात कियौ |
ब्रम्हा ने सुखकारी,
ब्रम्हा ने सुखकारी,
ऋषि पंचमी नाम दियौ ||
जय सप्तऋषि स्वामी,
जय-जय सप्तऋषि स्वामी ||
चारों चरण तुम्हारे,
इस व्रत को करते,
स्वामी इस व्रत को करते |
दीनदायल-दयामय,
दीनदायल-दयामय पाप सभी हरते ||
जय सप्तऋषि स्वामी,
जय-जय सप्तऋषि स्वामी ||
जग हित तुमने ऋषिवर,
वैदिक ज्ञान दियो,
स्वामी वैदिक ज्ञान दियौ |
तीन पाप निर्मूलन,
"प्रभु" गुणगान कियौ ||
जय सप्तऋषि स्वामी,
जय-जय सप्तऋषि स्वामी ||
|| इति आरती श्री सप्त ऋषि ||
Rishi Panchmi Vrat Ka Bhajan Lyrics
व्रत करते पंचमी का स्वीकार तुम करना,
संकट में आ पड़ें हैं उद्धार तुम करना,
ओ सप्तऋषि जी, ओ सप्तऋषि जी ||
व्रत करते पंचमी का स्वीकार तुम करना,
संकट में आ पड़ें हैं उद्धार तुम करना ||
किया था व्रत जिन्होने,
पाप उनके कट गये |
जो मिले अभिशाप थे,
वे सब ही मिट गये ||
कल्याण सबका करके,
उपकार तुम करना |
संकट में आ पड़ें हैं उद्धार तुम करना ||
ओ सप्तऋषि जी, ओ सप्तऋषि जी,
व्रत करते पंचमी का स्वीकार तुम करना,
संकट में आ पड़ें हैं उद्धार तुम करना ||
हमने किए जो पाप हैं जाने-अनजाने में,
करो माफ उनको आप हैं बिगड़ी बनाने में |
दुख सारे मिटा करके चमत्कार तुम करना,
संकट में आ पड़ें हैं उद्धार तुम करना ||
ओ सप्तऋषि जी, ओ सप्तऋषि जी,
व्रत करते पंचमी का स्वीकार तुम करना,
संकट में आ पड़ें हैं उद्धार तुम करना ||
श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर को ये व्रत था बताया,
सारे व्रतों मे श्रेष्ठ है यह उनको सुनाया |
पापों का रखा बोझ सिर "प्रभु" छार तुमको तुम करना,
संकट में आ पड़ें हैं उद्धार तुम करना ||
ओ सप्तऋषि जी, ओ सप्तऋषि जी,
व्रत करते पंचमी का स्वीकार तुम करना ||
Rishi Panchami Bhajan Lyrics
मेरी पूजा को न ठुकराना,
हो मेरी पूजा को न ठुकराना,
भूल गया है रस्ता राही,
सीधी राह दिखाना ||
मेरी पूजा में भेद है कितना फूल-फूल में,
एक मंदिर मे एक धूल में,
फूल भी तेरा, धूल भी तेरी,
धूल को फूल बनाना ||
मेरी पूजा को न ठुकराना,
हो मेरी पूजा को न ठुकराना ||
सोच जरा एक तेरी दासी,
नदी किनारे खड़ी है प्यासी,
सागर तू है, बूंद है तेरी,
बूंद की प्यास बुझाना ||
मेरी पूजा को न ठुकराना,
हो मेरी पूजा को न ठुकराना ||
Aarti Om Jai Jadeesh Hare Lyrics
ओम जय जगदीश हरे,
स्वामी! जय जगदीश हरे,
भक्त जनों के संकट,
क्षण में दूर करे,
ओम जय जगदीश हरे ||
जो ध्यावे फल पावे,
दुःख विनसे मन का,
स्वामी दुःख विनसे मन का,
सुख सम्पत्ति घर आवे,
कष्ट मिटे तन का,
ओम जय जगदीश हरे ||
मात-पिता तुम मेरे,
शरण गहूं मैं किसकी,
तुम बिन और न दूजा,
आस करूं जिसकी,
ओम जय जगदीश हरे ||
तुम पूरण परमात्मा,
तुम अन्तर्यामी,
पारब्रह्म परमेश्वर,
तुम सबके स्वामी,
ओम जय जगदीश हरे ||
तुम करुणा के सागर,
तुम पालन-कर्ता
मैं मूरख खल कामी,
कृपा करो भर्ता,
ओम जय जगदीश हरे ||
तुम हो एक अगोचर,
सबके प्राणपति,
किस विधि मिलूं दयामय,
मै तुमको मैं कुमति,
ॐ जय जगदीश हरे ||
दीनबन्धु दुखहर्ता,
तुम रक्षक मेरे,
करुणा हस्त बढ़ाओ,
द्वार खड़ा तेरे,
ॐ जय जगदीश हरे ||
विषय-विकार मिटाओ,
पाप हरो देवा,
श्रद्धा-भक्ति बढ़ाओ,
संतन की सेवा,
ओम जय जगदीश हरे ||
इति श्री ऋषि पंचमी व्रत कथा सम्पूर्ण ||
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FAQs
1- ऋषि पंचमी क्यों मनाई जाती है?
ऋषि पंचमी का त्योहार सप्त ऋषियों के सम्मान में मनाया जाता है। इस व्रत कथा को करने से जाने अनजाने में होने वाले पापों की मुक्ति एवं सप्त ऋषियों का आशीर्वाद मिलता है। मान्यता है कि इस दिन गंगा में स्नान करने से भी पापों से मुक्ति एवम मोक्ष की प्राप्ति होती है।
2- ऋषि पंचमी पर क्या खाना चाहिए?
ऐसी मान्यता है की इस व्रत को धारण करने वाला इंसान बिना जुताई एवम बुवाई के पैदा होने वाले अनाज एवम फल ग्रहण कर सकते हैं। जैसे तिन्नी के लाल वाले चावल जिसे साठी या मोरधन भी कहते हैं, दही, दूध साबुदाना इत्यादि खाकर व्रत पूर्ण किया जाता है।
3 - ऋषि पंचमी पर किसकी पूजा होती है?
ऋषि पंचमी के दिन सप्त ऋषियों की पूजा की जाती है। सप्त ऋषियों के नाम कश्यप, अत्रि, भारद्वाज, विश्वामित्र, गौतम, जमदग्नि, वशिष्ठ, इन सातों ऋषियों को ब्रह्मा, विष्णु, और महेश का अंश माना जाता है।
4- ऋषि पंचमी का दूसरा नाम क्या है?
ऋषि पंचमी को भाई पंचमी और गुरु पंचमी के नाम से भी जाना जाता है।
5 - ऋषि पंचमी के पीछे क्या कहानी है?
ऋषि पंचमी व्रत के करने से इंसान के द्वारा होने वाले जाने अनजाने में हुये पाप नष्ट होकर स्त्रियों के अखंड सौभाग्य की प्राप्ति होती है एवम वंश में सौभाग्य की व्रद्धि होती है।
6 - ऋषि पंचमी को राखी क्यों बांधते हैं?
मान्यता है कि माता श्री पार्वती ने अपने पुत्र गणेश को ऋषि पंचमी के दिन ही राखी बांधी थी। इसी वजह से माहेश्वरी समाज की महिलाएं अपने भाइयों को ऋषि पंचमी के दिन राखी बांधती हैं।
7-ऋषि पंचमी में क्या दान करना चाहिए?
इस दिन दान करने से व्रत का फल जल्द मिलता है।ऋषि पंचमी के दिन ब्राह्मणों को ये चीज़ें दान करनी चाहिए: केला, घी, शक्कर, वस्त्र, दक्षिणा एवम गरीबों और ज़रूरतमंदों को भोजन कराना भी चाहिए।
8 - ऋषि पंचमी का उद्देश्य क्या है?
ऋषि पंचमी का उद्देश्य है, ऋषियों का आशीर्वाद पाना, पापों से मुक्ति पाना, और ज्ञान और बुद्धि में वृद्धि करना. यह व्रत भारतीय संस्कृति और धार्मिक परंपराओं का एक अहम हिस्सा है। भारतीय संस्कृति को सम्पूर्ण जगत मे स्थापित करने एवम पापों की मुक्ति तथा सप्त ऋषियों का आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए महिलाएं ऋषि पंचमी का व्रत अवश्य धारण करे।