श्री सुंदरकांड पाठ लिरिक्स | Shree Sundarkand Lyrics

Shree Sundarkand Lyrics In Hindi

भगवान श्री हनुमान जी कलयुग के देवता है| जिन्हें प्रसन्न करने के लिए  ज्यादा परिश्रम नहीं करना पड़ता है | यह थोड़ी – सी पूजा मात्र से ही प्रसन्न हो जाते है| हनुमान जी को प्रसन्न करके उनकी कृपा पाने के लिए लोग अलग – अलग प्रकार के पूजा पाठ करते है| इन्ही में से एक श्री  सुंदरकांड का  पाठ भी है| जिसका पाठ हनुमान जी को प्रसन्न करने के लिए किया जाता है| हम सभी को भगवान श्री हनुमान जी को प्रसन्न करने एवं मनवांक्षित फलो की प्राप्ति के लिए श्री सुन्दरकाण्ड का पाठ अवश्य करना चाहिए|

Shree Sundarkand Lyrics Hindi

॥ श्री गणेशाय नमः ॥
श्री जानकीवल्लभो विजयते
श्रीरामचरितमानस पंचम सोपान- सुन्दरकाण्ड

॥ श्लोक ॥

शान्तं शाश्वतमप्रमयमघं निर्वाणशान्तिप्रदं
ब्रह्माशम्भुफणीन्द्रसेव्यमनीषं वेदांतवेद्यं विभुम्।
रामाख्यं जगदीश्वरं सुरगुरुं मायामनुष्यं हरिं
वन्देऽहं करुणाकरं रघुवरं भूपालचूड़ामणिम् ॥१॥

नान्या सृहा रघुपते हृदयेऽस्मदये
सत्यं वदामि च भवनखिलान्तरात्मा।
भक्तिं प्रयच्छ रघुपुङ्गव अवलंबन मे
कामादिदोषरहितं कुरु मानसं च ॥ 2॥

अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहं
दनुजवनकृष्णानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम्।
सकलगुणनिधानं वनराणामपिशाचं
रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि ॥ 3 ॥

॥ चौपाई ॥

जामवन्त के बचन सुहाए।
सुनि हनुमंत हृदय अति भाए॥
तब लगि मोहि परिखेहु तुम भाई।
सहि दुःख कन्द मूल फल खाँ ॥१॥

जब लगि आवौं सीतहि देखि।
होइहि काजु मोहि हर्ष बिदेशी॥
यह कह नै सबन्हि कहूँ माथा।
चलेउ हरषि हियँ धरिघुन्था॥ 2॥

सिन्धु तीर एक भूधर सुन्दर।
कौतुक कूदि चढ़ेउ ता ऊपर ॥
बार बार रघुबीर साँभरी।
तर्केउ पवनतनय बल भारी॥ 3 ॥

जेहिं गिरि चरण देइ हनुमंता।
चलेउ सो गा पाताल तुरंता ॥
जिमि अमोघ रघुपति कर बाना।
एहि भाँति चलेउ हनुमाना ॥ 4 ॥

जलनिधि रघुपति दूत बिचारी।
तैं मनक होहि श्रमहारी॥ 5 ॥

॥ दोहा॥

हनुमान् तेहि परसा कर्पुनि कीन्ह प्रणाम।
राम काजु कीन्हें बिनु मोहि कहा विश्राम॥१॥

॥ चौपाई ॥

जात पवनसुत देवन्ह देखा।
जानैं कहुँ बल बुद्धि बिसेषा॥
सुरसा नाम अहिन्ह कै माता।
पथिन्हि आइ कहि तेहिं बाता॥१॥

आजु सुरन्ह मोहि दीन्ह अहारा।
सुनत बचन कह पवनकुमारा॥
राम काजु करि फिरि मैं आवौं।
सीता कैइ सुधि प्रभुहि सुनावौं ॥ 2॥

तब तव बदन पतिहौं आई।
सत्य कहौँ मोहि जान दे माई॥
कवनेहूँ जतन देइ नहिं जान।
ग्रसि न मोहि कहेउ हनुमाना ॥ 3 ॥

जोजं भारी तिहिं बदनु पसारा।
कपि तनु कीन्ह दुगुन बिस्तारा॥
सोरह जोजन मुख तेहिं ठयौ।
तुरत पवनसुत बत्तिस भयउ॥ 4 ॥

जस जस सुरसा बदनु बढ़ावा ।
तासु दून कपि रूप देखावा॥
सत जोजन तेहिं सार कीन्हा।
अति लघु रूप पवनसुत लीन्हा॥ 5 ॥

बदन पैठि पुनि बाहेर आवा।
मागा बिदा ताहि सिरु नावा॥
मोहि सुरन्ह जेहि लागि पठावा।
बुधि बल मरमु तोर मैं पावा॥ 6 ॥

॥ दोहा॥

राम काजु सबु करिहहु तुम्ह बल बुद्धि निधान।
आसिष देइगे सो हर्षि चलेउ हनुमान् ॥ 2॥

॥ चौपाई ॥

निसिचर एक सिंधु महुँ रहइ॥
करि माया नभु के खग गहै॥
जीव जंतु जे गगन उड़हीं।
जल बिलोकि तिन्ह कै परिछाहिं ॥१॥

गहि चाह सक सो न उउई।
एहि बिधि सदा गगनचर कोना॥
सोइ छल हनुमान कहाँ कीन्हा।
तासु कपतु कपि तुरथिं चीन्हा॥ 2॥

ताहि मारि मारुतसुत बीरा।
बारिधि पार गयौ मतिधीरा॥
तहां जाइ आकलन बन सोभा।
गुंजत चांचरीक मधु लोभा॥ 3 ॥

नाना तरु फल फूल सुहाए।
खग मृग बृंद देखि मन भाए॥
सैल बिसाल देखि एक आगे।
ता पर धाइ चढ़ेउ भय त्यागें ॥ 4 ॥

उमा न कछु कपि कै मोराई।
प्रभु प्रताप जो कालहि कहा॥
गिरि पर चढ़ी लंका तेहि दर्शन।
कहि न जाइ अति दुर्ग बिशेषी॥ 5 ॥

अति उतंग जलनिधि चहु पासा।
कनक कोटि कर परम प्रकाशा॥ 6 ॥

॥ छंद ॥

कनक कोटि बिचित्र मणि कृत सुंदरायतना घना।
चुहट्ट हत्त सुबत्त बिथिं चारु पुर बहुबिधि बना॥
गज बाजी खच्चर निकर पदचर रथ बरूथन्हि को गनै।
बहुरूप निसिचर जूथ अतिबल सेन बरनत नहिं बनै॥ १॥

बन बाग उपबन बटिका सर कूप बापीं सोहहिं।
नर नाग सुर गंधर्व कन्या रूप मुनि मन मोहहिं॥
कहूँ माल देह बिसाल साल समान अतिबल गरजहिं।
नाना आखरेंह भिरहिं बहुबिधि एक एकन्हँ तर्जही ॥ 2॥

करि जतन भट कोतिन्ह बिकट तन नगर चहुँ दिसि रचहिं।
कहूँ महिष मानुष धेनु खर अज खल निशाचर भच्छहिं ॥
एहि लागि तुलसीदास इन्ह की कथा कछु एक है कही।
रघुबीर सर तीरथ सरीरन्हि त्यागि गति पाहिं सही ॥ 3 ॥

॥ दोहा॥

पुर रखवारे देखि बहु कपि मन कीन्ह बिचार।
अति लघु रूप धरौं निसि नगर करौं पईसार॥ 3 ॥

॥ चौपाई ॥

मसक समान रूप कपि धरी।
लंकहि चलेउ सुमिरि नरहरि॥
नाम लंकिनी एक निसिचरी।
सो कह चलेसि मोहि निंदरी॥१॥

जानेहि नहिं मरमु सठ मोरा।
मोर अहार जहां लगि चोरा॥
मुठिका एक महा कपि हनी।
रुधिर बमत् धरनी ढनमनी॥ 2॥

पुनि संभारि उठी सो लंका।
जोरि पानी कर विनय संसका॥
जब रावनहि ब्रह्म कर दीन्हा।
चलत बिरंचि कहा मोहि चीन्हा॥ 3॥

बिकल होसि तैं कपि कें मारे।
तब जानेसु निसिचर संघारे ॥
तात मोर अति पुण्य बहुता।
देखेऊ नयन राम कर दूता॥ 4 ॥

॥ दोहा॥

जैसे स्वर्ग अपबर्ग सुख धरीअ तुला एक अंग।
तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग॥ 4 ॥

॥ चौपाई ॥

प्रबिसी नगर कीजे सब काजा।
ह्रदय राखि कोसलपुर राजा॥
गरल सुधा रिपु करहिं मिताई।
गोपद सिन्धु अनल सितलाई॥१॥

गरुड़ सुमेरु रेनु सम ताहि।
राम कृपा करि चितवा जाही॥
अति लघु रूप धरेउ हनुमाना।
पैठा नगर सुमिरि भगवाना ॥ 2॥

मंदिर मंदिर प्रति करि सोधा।
देख जहाँ तहाँ अगणित जोधा॥
गयऊ दसानन मंदिर माहीं।
अति बिचित्र कहि जात सो नहीं॥ 3 ॥

सयन कियें देखा कपि तेही।
मन्दिर महूँ न दीखि बैदेही॥
भवन एक पुनि देख सुहावा।
हरि मंदिर ताँ भिन्न बनावा॥ 4 ॥

॥ दोहा॥

रामायुध अंकित गृह सोभा बरनि न जाइ।
नव तुलसीका वृंद तहँ देखि हर्ष कपिराई॥ 5 ॥

॥ चौपाई ॥

लंका निसिचर निकर निवासा।
यहाँ कहाँ सज्जन कर बासा ॥
मन महुँ तरक करैं कपि लागा।
तेहिं समय बिभीषनु जागा॥१॥

राम राम तेहिं सुमिरन कीन्हा।
ह्रदय हर्ष कपि सज्जन चीन्हा॥
एहि सन हथि करिहौं पहिचानी।
साधु ते होइ न करज हानि॥ 2॥

बिप्र रूप धरि बचन सुनाए।
सुनत बिभीषन उठी तहँ आए ॥
करि प्रणाम पूँछी कुसलाइ।
बिप्र कहहु निज कथा बुझाई॥ 3 ॥

की तुम्ह हरि दासन्ह महँ कोई।
मोरें हृदय प्रीति अति होई॥
की तुम रामु दीन अनुरागी।
आयहु मोहि करण बड़भागी॥ 4 ॥

॥ दोहा॥

तब हनुमंत कहि सब राम कथा निज नाम।
सुनत जुगल तन पुलक मन मगन सुमिरि गुण ग्राम॥ 6 ॥

॥ चौपाई ॥

सुनहु पवनसुत रहनि हमारी।
जिमि दसनन्हि महुँ जीभ बिचारी॥
तात कहुँ मोहि जानि अनाथा।
करिहहिं कृपा भानुकुल नाथा॥१॥

तामस तनु कछु साधन नहीं।
प्रीति न पद सरोज मन माहीं॥
अब मोहि भा भरोस हनुमंता।
बिनु हरि कृपा मिलहिं नहिं संता॥ 2॥

जौं रघुबीर अनुग्रह कीन्हा।
तू तुम्ह मोहि दरसु हठि दीन्हा॥
सुनहु बिभीषन प्रभु कै रीति।
करहिं सदा सेवक पर प्रीती॥ 3 ॥

कहहु कवन मैं परम कुलीना।
कपि चंचल सबहिं बिधि हीना॥
प्रात लेइ जो नाम हमारा।
तेहि दिन ताहि न मिले अहारा॥ 4 ॥

॥ दोहा॥

अस मैं अधम सखा सुनु मोहु पर रघुबीर।
किन्हीं कृपा सुमिरि गुण तीन बिलोचन नीर॥ 7 ॥

॥ चौपाई ॥

जानतहूं अस स्वामी बिसारि।
फिरहिं ते काहे न होहिं दुखारी॥
एहि बिधि कहत राम गुण ग्रामा।
पावा अनिर्बाच्य विश्राम ॥१॥

पुनि सब कथा बिभीषण कहि।
जेहि बिधि जानसुता तहँ रही॥
तब हनुमंत कहा सुनु भ्राता।
देखिय चहौ जानकी माता॥ 2॥

जुगुति बिभीषन सकल सुनाई।
चलेउ पवनसुत बिदा कराई॥
करि सोइ रूप गयौ पुनि तहवाँ।
बन असोक सीता रह जहवाँ॥ 3 ॥

देखि मनहि महुँ कीन्ह प्रणमा।
बैठहिं बीति जात निसि जामा॥
कृस तनु सीस जटा एक बेनी।
जपति हृदयं रघुपति गुण श्रेणि॥ 4 ॥

॥ दोहा॥

निज पद नयन दियेँ मन राम पद कमल लीन।
परम दुखी भा पवनसुत देखि जानकी दीन॥ 8॥

॥ चौपाई ॥

तरु पल्लव महुँ रे लुकाई।
करइ बिचार करौं का भाई॥
तेहि अवसर रावनु ​​तहँ आवा।
संग नारी बहु कि बनइवा॥ १॥

बहु बिधि खल सीताहि समझावा।
साम दान भय भेद देखावा॥
कह रावनु ​​सुनु सुमुखि सयानी।
मंदोदरी आदि सब रानी॥ 2॥

तव अनुचरें करौं पन मोरा।
एक बार बिलोकु मम ओरा ॥
तीन धरि ओत कहति बदेही।
सुमिरि अवधपति परम सनेही॥ 3 ॥

सुनु दशमुख खद्योत प्रकाशसा।
कहहुँ कि नलिनी करइ बिकासा॥
अस मन समुझु कहति जानकी।
खल सुधि नहिं रघुबीर बान की॥ 4 ॥

सठ सुनें हरि अनेहि मोहि।
अधम निलज्ज लाज नहिं तोही॥ 5 ॥

॥ दोहा॥

आपुहि सुनि खद्योत सम रामहि भानु समान।
पुरुष बचन सुनि काढ़ि असि बोला अति खिसियान॥ 9 ॥

॥ चौपाई ॥

सीता तैं मम कृत अपमाना।
कटिहौँ तब सिर कठिन कृपाना॥
नहिं त सपदि मनु मम बानी।
सुमुखि होति न त जीवन हानि॥१॥

स्याम सरोज दम सम सुन्दर।
प्रभु भुज करि कर सम दसकंदर॥
सो भुज कंठ कि तव असि घोरा।
सुनु सठ अस प्रवण पन मोरा॥ 2॥

चन्द्रहास हरु मम परितापं।
रघुपति बिरह अनल संगतं ॥
सीतल निसिट बहसति बर धारा।
कह सीता हरु मम दुःख भारा॥ 3 ॥

सुनत बचन पुनि मारण धावा।
मयतानियाँ कहि नीति बबावा॥
कहेसी सकल निसिचिनह बोलाई।
सीतहि बहु बिधि त्रासु जय॥ 4 ॥

मास दिवस महुँ कहा न माना।
तो मैं मारबी काधि कृपाना ॥ 5 ॥

॥ दोहा॥

भवन गयौ दसकंधर इहां पिशाचिनी बृंद।
सीतहि त्रास सावनहिं धरहिं रूप बहु मंदा॥ १० ॥

॥ चौपाई ॥

त्रिजटा नाम रचसी एका।
राम चरण रति निपुण बिबेका॥
सबन्हौ बोलि सुनासी सपना।
सीताहि सेइ करहु हित अपना॥१॥

सपनें बैनर लंकारी।
जातुधान सेना सब मारी॥
खर आरूढ़ नागन दससीसा।
मुंडित सिर खंडित भुज बीसा ॥ 2॥

लंका मनहुँ बिभीषण पाई॥
नगर फिरी रघुबीर॥ दोहा ॥ई .
तब प्रभु सीता बोलि पटै॥ 3 ॥

होइहि सत्य गायँ दिन चारी॥
तासु बचन सुनि ते सब डरीं।
जनसुता के चरणन्हि परीं॥ 4 ॥

॥ दोहा॥

जहाँ तहाँ डूबे सकल तब सीता कर मन सोच।
मास दिवस देवसं मोहि मरिहि निसिचर पोच ॥१॥

एहि बिधि सो दच्छिन दिसि जाई।
ये सपना मैं कहूँ कॉली।

॥ चौपाई ॥

त्रिजटा सन बोलें कर जोरी।
मातु बिपति संगिनी तैं मोरी॥
तजौं देह करु बेगि उपाई।
दुसह बिरहु अब नहिं सहि जाई॥१॥

आनि काठ रचु चिता बनाई।
मातु अनल पुनि देहु लगाईं॥
सत्य करहि मम प्रीति सयानी।
सुनै को श्रवण सूल सम वाणि॥ 2॥

सुनत बचन पद गहि समुझासी।
प्रभु प्रताप बल सुजसु सुनासि॥
निसि न अनल मिल सुनु सुकुमारी।
अस कहि सो निज भवन सिधारी॥ 3 ॥

कह सीता बिधि भा  
मिलि मिलहि न पावक मिटिहि न सूला॥
देखिये प्रगट गगन अंगारा।
अवनि न आवत एकउ तारा॥ 4॥

पावकमय ससि स्रवत न आगि।
मनहुँ मोहि जानि हटभागी॥
सुनहि बिनय मम बिटप असोका।
सत्य नाम कुरु हरु मम सोका ॥ 5॥

नूतन किसलय अनल समाना।
देहि अग्नि जनि करहि निदाना॥
देखिये परम बिरहाकुल सीता।
सो चैन कपिहि कल्प सम बीता॥ 6॥

॥ दोहा॥

कपि करि हृदय बिचार दीन्हि मुद्रिका डारि तब।
जनु असोक अंगार दीन्ह हरषि उठि कर गहेउ॥ 12॥

॥ चौपाई ॥

टैग देखें मुद्रिका मनमोहक।
राम नाम अंकित अति सुंदर ॥
चकित चितव मुदरी पहिचानि।
हर्ष विषाद हृदयं अकुलानि॥१॥

जीति को सकइ अजय रघुराई।
माया तेन असि रचि नहिं जाई॥
सीता मन बिचार कर नाना।
बच्चन बोलेउ हनुमाना मधुरा॥ 2॥

रामचन्द्र गुण बर्नन लागा।
सुनतहिं सीता कर दुःख भागा॥
लागीं सुनैन श्रवण मन लाई।
आदिहु तेन सब कथा सीता॥ 3॥

श्रवणामृत जेहिं कथा सुहाई।
कहि सो प्रगट होति किन भाई॥
तब हनुमंत निकट चलि गयौ।
फिरि घरं मन बिसमय भयौ ॥ 4॥

राम दूत मैं मातु जानकी।
सत्य सपथ करुणानिधान की॥
य मुद्रिका मातु मैं आनी।
दीनहि राम तुम्ह कहँ सहिदानी॥ 5॥

नर बानरहि संग कहु कैसे।
कहि कथा भाई संगति जैसे॥ 6॥

॥ दोहा॥

कपि के बचनप्रेम स सुनि उपजा मन बिस्वास।
जो मन क्रम बचन यह कृपासिंधु कर दास॥ 13॥

॥ चौपाई ॥

हरिजन किरण प्रीति अति गाधी।
सजल नयन पुलकावली बाढ़ी ॥
बुदत बिरह जलधि हनुमाना।
भयहु तात मो कहुं जलजाना॥१॥

अब कहु कुसल जाउँ बलिहारी।
अंजु सुख भवन सहित खरी॥
कोमलचित कृपाल रघुराई।
कपि केहि है धरि निठुराई॥ 2॥

सहज बानी सेवक सुख देय।
कहौंक सुरति करत रघुनायक॥
कहूँ नयन मम सीतल ताता।
होइहहिं निरखि स्याम मृदु गता॥ 3॥

बचनु न एव नयन अंतिम बारी।
अहा नाथ हौं नाथ बिसारि॥
देखिये परम बिरहाकुल सीता।
बोला कपि मृदु बचन बिनीता॥ 4॥

मातु कुसल प्रभु अंजु सहित।
तव दुःख दुःख सुकृपा निकेता॥
जनि जननि मनहु जियौं ऊना।
तुम्ह ते प्रेमु राम कें दूना॥ 5॥

॥ दोहा॥

रघुपति कर सन्देसु अब सुनु जननि धरि धीर।
अस कहि कपि गदगद भयउ एकांत बिलोचन नीर॥ 14॥

॥ चौपाई ॥

कहेउ राम बियोग तव सीता।
मो कहूँ सकल भए बिपरिता॥
नव तरु किसलय मनहुँ कृष्णु।
कालनिसा सम निसि ससि भानु॥१॥

कुबले बिपिन कुंत बन सरिसा।
बरिद तपत तेल जनु बरिसा॥
जे हित रहत तेई पीरा।
उरग स्वस सम त्रिबिध समीरा ॥ 2॥

कहेहू तें कछु दुख घटी होई।
कहि कहौं यह जान न कोय॥
तत्त्व प्रेम कर मम अरु तोरा।
जानत प्रिया एकु मनु मोरा॥ 3॥

सो मनु सदा रहत तोहि पाहिं।
जानु प्रीति रसु एतनेहि माहीं॥
प्रभु सन्देसु सुनत बदेही।
मगन प्रेम तन सुधि नहिं तेहि॥ 4॥

कह कपि हृदयं धीर धरु माता।
सुमिरु राम सेवक सुखदाता॥
उर अनाहु रघुपति प्रभुते।
सुनि मम बचन तजहु कदराई॥ 5॥

॥ दोहा॥

निसिचर निकेर पतंग सम रघुपति बान कृष्णु।
जननि हृदयं धीर धरु जरे निशाचर जानु॥ 15॥

॥ चौपाई ॥

जौं रघुबीर होति सुधि पाई।
नहिं बिलम्बुते रघुराई॥
राम बन रबि उहे जानकी।
तम बरूथ कहँ जातुधन की॥१॥

अबहिं मातु मैं जाउँ लावै।
प्रभु आयसु नहिं राम॥ दोहा ॥ई॥
कछुक दिवस जननि धरु धीरा।
कपिन्ह सहित अइहहिं रघुबीरा॥ 2॥

निसिचर मारि तोहि लै जाहिं।
तिहूँ पुर नारदादि जसु गहहिं ॥
हैं सुत कपि सब तुम्हहि समाना।
जातुधान अति भट बलवाना॥ 3॥

मोरें हृदय परम संदेह।
सुनि कपि प्रगट कीन्हि निज देहा॥
कनक भूधराकार शरीरा।
समर घोर अतिबल बीरा॥ 4॥

सीता मन भरोस तब भयौ।
पुनि लघु रूप पवनसुत लयौ॥ 5॥

॥ दोहा॥
सुनु माता साखामृग नहिं बल बुद्धि बिसाल।
प्रभु प्रताप तेन गरुड़हि खै परम लघु ब्याल॥ 16॥

॥ चौपाई ॥

मन संतोष सुनत कपि वाण।
भगति प्रताप तेज बल सानी॥
असीस दीनहि रामप्रिय जान।
होहु तात बल सील निधाना॥१॥

अजर अमर गुणनिधि सुत होहू।
करहुँ बहुत रघुनायक छोहू॥
करहुँ कृपा प्रभु अस संत काना।
पसंदीदा प्रेम मगन हनुमाना ॥ 2॥

बार बार नासी पद सीसा।
बोला बचन जोरि कर कीसा॥
अब कृतकृत्य भयउँ मैं माता।
आशिष तव अमोघ बिख्याता॥ 3॥

सुनहु मातु मोहि अतिसय भूखा।
लागी देखि सुन्दर फल रूखा॥
सुनु सुत करहिं बिपिन रखवारि।
परम सुभट रजनीचर भारी॥ 4॥

तिन्ह कर भय माता मोहि नाहीं।
जौं तुम्ह सुख मनहु मन माहीं॥ 5॥

॥ दोहा॥

देखि बुद्धि बल निपुण कपि कहेउ जानकी जाहु।
रघुपति चरण हृदयं धरि तात मधुर फल खाहु॥ 17॥

॥ चौपाई ॥

चलेउ नाइ सिर पथेउ बागा।
फल कैसे तरु तोरे लागा॥
रहे तं बहु भट रखवारे।
कछुसी मारे कछु जाय पुकारे॥१॥

तेहिं असोक वाटिका उजारी॥
कसी फल अरु बिटप उपारे।
राचक मेरी मेरी माही डारे॥ 2॥

तिन्हहि देखि गर्जेउ हनुमाना ॥
सब रजनीचर कपि संघारे।
गए पुकारत कछु अधमारे॥ 3॥

चला संग लै सुभट अपारा॥
आवत देखि बिटप गहि तर्जा।
ताहि निपति महाधुनि गर्जा॥ 4॥

॥ दोहा॥

कछु मारेसि कछु मर्दिस कछु मिलएसि धरी धुरी|
कछु पुनि जाइ पुकारे प्रभु मर्कट बल भूरि॥ ८ ॥

॥ चौपाई ॥

सुनि सूत बढ़ लंकेस रिसाना
पठइसि मेघनाद बलवाना॥
मारसि जनि सुत बांधेसु ताहि।
देखिअ कपिहि कहा कर आहि॥१॥

कपि देखा दारुन भट आवा।
कटकटाइ गर्जा अरु धावा॥ 2॥

बिरथ कीन्ह लंकेस कुमारा ॥
रहे महा भट ताके संगा।
गहि गहि कपि मर्दै निज अंगा॥ 3॥

तिन्हहि निपाति ताहि सन बाजा।
भिरे जुगल मनहुँ गजराजा॥
मुठिका मारी चढ़ा तरु जाई।
ताहि एक छन मुरुक्षा आई॥ 4॥

उठी बहोरी किन्हसि बहु माया।
जीति न जाय प्रभंजन जाया॥ 5॥

॥ दोहा॥

ब्रम्ह अस्त्र तेहि साधा कापी मन कीन्ह विचार|
जौं न ब्रह्मसर मानौ महिमा मिटइ अपार॥ 19॥

॥ चौपाई ॥

ब्रम्हबान कपि कन्हु तेहि मारा|
परतिहु बार कतकु संघारा॥
तेहिं देखा कपि मुरुचित भयउ।
नागपास बांधेसी लै गयौ ॥१॥

भव बंधन कहहिं नर ज्ञानी॥
तासु दूत कि बंध तरु आवा।
प्रभु कारज लगि कपिहिं बांधवा॥ 2॥

कौतुक लगि सभा सब आय॥
दशमुख सभा देखि कपि जाई।
कहि न जाइ कछु अति प्रभुताई॥ 3॥

दसमुख सभा दीखि कपि जाई|
भृकुटि बिलोक्त सकल सभीता॥
देखि प्रताप न कपि मन संका।
जिमि अहिगन महुँ गरुड़ असंका॥ 4॥

॥ दोहा॥

कपिहि बिलोकी दसानन विहसा कपि दुर्बाद|
सुत बध सुरति कीन्हि पुनि उपजा हृदयं बिषद॥ 20॥

॥ चौपाई ॥

कह लंकेस कवन तैं कीसा।
केहि कें बल घलेहि बन खीसा॥
की धौं श्रवण सुनेहिं नहीं मोहि।
देखौ अति असंक सठ तोही॥१॥

कहु सठ तोहि न प्राण कै बाधा॥
सुनु रावण ब्रह्माण्ड निकाया।
पाई जासु बल बिरचित माया॥ 2॥

पालत सृजत हरत दाससीसा ॥
जा बल सीस धरत सहसानन।
अंडकोस सहित गिरि कानन ॥ 3॥

तुम्ह से सथन्ह सिखावनु दाता॥
हर कोदंड कठिन जेहिं भांजा।
तेहि सहित नृप दल मद गंजा॥ 4॥

खर दूषण त्रिसराअरु बाली|
बधे सकल अतुलित बलसालि॥ 5॥

॥ दोहा॥

जाके बल लवलेश तें जितेहु चराचर झारी|
तासु दूत मैं जा करि हरि अनेहु प्रिय नारि॥ 21॥

॥ चौपाई ॥

नाथ एक आवा कपि भारी।
सुनि रावन पठाए भात नाना।
पुनि पठयौ तेहिं अच्छकुमारा।
कछु मरेसि कछु मरदेसी कछु मिलसी धरी धुरी।
सुनि सुत बध लंकेस रिसाना।
बन्धु निधन सुनि उपजा क्रोधा॥
अति बिसाल तरु एक उपारा।
चला इंद्रजीत अतुलित जोधा।
ब्रह्म अस्त्र तेहि सांधा कपि मन कीन्ह बिचार।
ब्रह्मबाण कपि कहुं तेहिं मारा।
जासु नाम जपि सुनहु भवानी।
कपि बंधन सुनि निसिचर धाए।
कर जोरें सुर दिसिपा बिनिता।
कपिहि बिलोकि दसानन बिहसा कहि दुर्बाद।
मारे निसिचर केहिं अपराधा।
जाके बल बिरंचि हरि ईसा।
धरै जो बिबिध देह सूत्रता।
खर दूषण त्रिसिरा अरु बालि।
जाके बल लवलेस तेन जितेहु चराचर जारी।
जाणौ मैं तुम्हारी प्रभुताई।
सहसबाहु सन परि लराइ॥
समर बालि सन करि जासु पावा।
सुनि कपि बचन बिहसी बिहरावा॥१॥

कपि सुभाव तेन तोरेउँ रौया॥
सब कें देह परम प्रिय स्वामी।
मरहिं मोहि कुमारग गामी॥ 2॥

तेहि पर बांधेव तनय तुम्हारे॥
मोहि न कछु छोड़े कै लाजा।
कीन्ह छौं निज प्रभु कर काजा॥ 3॥

सुनहु मन तजि मोर सिखवन॥
देखहु तुम्ह निज कुलहि बिचारी।
भ्रम तजि भजहु भगत भय हारी॥ 4॥

खायौँ फल प्रभु लागी भूँखा।
जिन्ह मोहि मारा ते मैं मारे।
बिनती करौँ जोरि कर रावन।
जाकें डर अति काल।
जो सुर असुर चराचर खाई॥
तासों बयरु कबहूँ नहीं कीजै।
मोरे कहे जानकी दीजै॥ 5॥

॥ दोहा॥

प्रणतपाल रघुनायक करुणा सिन्धु खरारि।
गायें सरन प्रभु राखिहैं तव अपराध बिसारि॥ 22॥

॥ चौपाई ॥

राम चरण पंकज उर धरहूं।
लंकाँ अचल राज तुम करहु॥
ऋषि पुलस्ति जसु बिमल माया।
तेहि ससि महुँ जनि होहु कालका॥१॥

राम नाम बिनु गिरि न सोहा।
देखु बिचारि त्यागि मद मोहा॥
बसन हीन नहीं सोह सुरारी।
सब हरे भूषित बर नारी॥ 2॥

राम बिमुख संपति प्रभुताई।
जाइ रही पै बिनु पाई॥
सल मूल जिन्ह सरितन्ह नहीं।
बरषि गायें पुनि ताहिं सुखहिं॥ 3॥

सुनु दसकंठ कहौं पन रोपी।
बिमुख राम त्राता नहिं कपि॥
संश्र सहस बिष्णु अज तोही।
साखिं न राखि राम कर द्रोही॥ 4॥

॥ दोहा॥

मोहमूल बहु सुल पद त्यागहु तम अभिमान।
भजहु राम रघुनायक कृपा सिन्धु भगवान॥ 30॥

॥ चौपाई ॥

जदपि कहि कपि अति हित वान।
भगति बिबेक बिरति नय सानी॥
बोला बिहसि महा अभिमानी।
मिलावे हमहि कपि गुरु बड़ ज्ञान॥१॥

मृत्यु निकट आई खल तोही।
लागेसी अधम शिक्षण मोहि ॥
उलटा होइहि कह हनुमाना।
मतिभ्रम तोर प्रगट मैं जाना॥ 2॥

सुनि कपि बचन बहुत खिसियाना।
बेगि न हरहु मूढ़ कर प्राना॥
सुनत निसाचर मरण धाए।
सचिवहंसहित विभीषण आये॥ 3॥

नै सीस करि बिनय ब्योआ।
नीति बिरोधा न मारिअ दूता॥
अन दंड कछु करिया गोसाईं।
सबहिं कहा मंत्र भल भाई॥ 4॥

सुनत बिहसी बोला दसकंधर।
अंग भंग करि पटै बंदर॥ 5॥

॥ दोहा॥

कपि कें ममता पूछ पर सभी कहूं समझाई।
तेल बोरि पति रवि पुनि पावक देहु लागै॥ 24॥

॥ चौपाई ॥

पूँछ हीन बानर तहँ जाइही।
तब सथ निज नाथहि लइइ इहि ॥
जिन्ह कैं किन्हींसिस बहुत बड़ाई।
देखउँ मैं तिन्ह कै प्रभुताई॥१॥

बचन सुनत कपि मन मुसुकाना।
भाई सहायता सारद मैं जाना॥
जातुधान सुनि रावण रे।
लागे रचें मूढ़ सोइ रचना॥ 2॥

रहा न नगर बसन घृत तेला।
बाढ़ी पूँछ कीन्ह कपि खेला॥
कौतुक कहँ आय पुरबासी।
मरहिं चरण करहिं बहु यसि॥ 3॥

बजहिं ढोल देहिं सब तारी।
नगर फेरि पुनि पूँछ पृष्ठारी॥
पावक जरत देखि हनुमंता।
भयउ परम लघुरूप तुरंता ॥ 4॥

निबुकि चढ़ाईउ कपि कनक अत्तारं।
भह सकैत निसाचर नारीं ॥ 5॥

॥ दोहा॥

हरि प्रेरणा तेहि अवसर चले मेरु उनचास।
अट्टहास करि गर्जा कपि वृद्धि लग आकाश॥ 25॥

॥ चौपाई ॥

देह बिसाल परम हरुआई।
मन्दिर तेन मन्दिर चढ़ै ॥
जराय नगर भा लोग बिहाला.
झपट लपट बहु कोटि कराला॥१॥

तात मातु हा सुनिअ कॉला।
एहिं अवसर को हमहि उबारा॥
हमने जो कहा ये कपि नहीं होई।
बानर रूप धरें सुर कोई॥ 2॥

साधु अवग्या कर फलु ऐसा।
जराई नगर अनाथ कर जैसा ॥
जरा नगर निमिष एक माहीं।
एक विभीषन कर गृह नहीं॥ 3॥

ता कर दूत अनल जेहिं सिरिजा।
जरा न सो तेहि कारण गिरिजा॥
उलटी पलटी लंका सबरीलीज।
जपि पुनि सिन्धु मँगारि॥ 4॥

॥ दोहा॥

पुंछ बबैइ खोइ श्रम धरि लघु रूप भोरि।
जनसुता कें आगें ठाढ़ भयौ कर जोरि॥ 26॥

॥ चौपाई ॥

मातु मोहि दीजे कछु चीन्हा।
जैसें रघुनायक मोहि दीन्हा॥
चूड़ामणि उतारीतब दयऊ।
हर्ष पवनसुत सहित लयऊ॥१॥

कहेहु तात अस मोर प्रणाम।
सब प्रकार प्रभु पूर्णकामा ॥
दीन मित्र बिरुदु संभारी।
हरहु नाथ मम संकट भारी॥ 2॥

तात सक्रसुत कथा सुनाएहु।
बाण प्रताप प्रभुहि समझहु॥
मास दिवस महुँ नाथ न आवा।
तौ पुनि मोहि जीअत नहिं पावा॥ 3॥

कहु कपि केहि बिधि राखौं प्राण।
तुमहूँ तात कहत अब जाना॥
तोहि देखि सीतलि भई छाती।
पुनि मो कहुँ सोइ दिनु सो रति॥ 4॥

॥ दोहा॥

जनकसुतहि समुझाई करि बहु बिधि धीरज दीन्ह।
चरण कमल सिरु नाइ कपि गावनु राम पहिं कीन्ह॥ 27॥

॥ चौपाई ॥

चलत महाधुनि गर्जेसि भारी।
गर्भ सर्वहिं सुनि निसिचर नारी॥
नाघि सिन्धु एहि परहि आवा।
सबद किलिकिला कपिन्ह सुनावा॥१॥

हर्षे सब बिलोकि हनुमाना।
नूतन जन्म कपिन्ह तब जाना॥
मुख प्रसन्न तन तेज बिराजा।
कीन्हेसि रामचन्द्र कर काजा॥ 2॥

मिले सकल अति भए सुखारी।
तलफ़त मीन पाव जिमी बारी ॥
चले हरषि रघुनायक पासा।
पूँछत कहत नवल इतिहासा ॥ 3॥

तब मधुबन भीतर सब आ।
अंगद समत् मधु फल के॥
रखवारे जब बरजन लागे।
मुष्टि प्रहार हनत सब भागे॥ 4॥

॥ दोहा॥

जय बुलावे राज ते सब बन उजार जुब।
सुन सुग्रीव हरष कपि करि आये प्रभु काज॥ 28॥

॥ चौपाई ॥

जौं न होति सीता सुधि पाई।
मधुबन के फल सखिन की खोय॥
एहि बिधि मन बिचार कर राजा।
आइ गए कपि सहित समाजा॥१॥

ऐ सबन्हि नवा पद सीसा।
मिलेऊ सबन्हि अति प्रेम कपीसा॥
पूँछी कुसल कुसल पद अनुगमन।
राम कृपाँ भा काजु बिदेशी॥ 2॥

नाथ काजु किन्हेउ हनुमाना।
राखे सकल कपिन्ह के प्राण॥
सुनि सुग्रीव बहुरि तेहि मिलौ।
कपिन्ह सहित रघुपति पहिं चलेऊ॥ 3॥

राम कपिन्ह जब आवत देखा।
किहें काजु मन हर्ष बिसेषा॥
फटिक सिला अरेस्ट डवौ भाई।
परे सकल कपि चरणन्हि जाई॥ 4॥

॥ दोहा॥

प्रीति सब भते रघुपति करुणा पुंज।
प्रश्नी कुसल नाथ अब कुसल देखि पद कंज॥ 29॥

॥ चौपाई ॥

जामवन्त कह सुनु रघुराया।
जा पर नाथ करहु तुम दया॥
ताहि सदा शुभ कुसल।
सुर नर मुनि प्रसन्न ता ऊपर॥१॥

सोइ बिजै बिनै गुन सागर।
तासु सुजसु त्रिलोक संच ॥
प्रभु की कृपा भयौ सब काजू।
जन्म हमार सुफल भा आजु॥ 2॥

नाथ पवनसुत कीन्हि जो कर्ण।
सहसाहुं मुख न जाइ सो बरनि॥
पवनतनय के चरित सुहाए।
जामवन्त रघुपतिहि सुनै॥ 3॥

सुनत कृपानिधि मन अति भाए।
पुनि हनुमान् हरषि हियँ काल॥
कहहु तात केहि भाँति जानकी।
रहति करति रच स्वप्राण की॥ 4॥

॥ दोहा॥

नाम पाहुरो दिवस निसि ध्यान ग़लीट कपाट।
लोचन निज पद जंत्रित जाहिं प्राण केहिं बात ॥ 30॥

॥ चौपाई ॥

चलत मोहि चूड़ामणि दीन्हीं।
रघुपति हृदयं ली सोइ लीन्हें॥
नाथ जुगल लोचन भारी बारी।
बचन कहे कछु जनकुमारी॥१॥

अंजू सहित गहेहु प्रभु चरणा।
दीन बन्ध्या प्रत्यन्तरति हरना ॥
मन क्रम बच्चन चरण अनुरागी।
केहिं अपराध नाथ हौं तारा॥ 2॥

अवगुण एक मोर मैंने माना।
बिछुरत प्राण न कीन्ह पयाना॥
नाथ सो नयनन्हि को अपराधा।
निस्रत प्राण करहिं हथि बाधा॥ 3॥

बिरह अगिनि तनु तुल समीरा।
स्वस जरै छन माहीं शरीरा॥
नयन सर्वहिं जलु निज हित लागी।
जरै न पाव देह बिरहागी॥ 4॥

सीता कै अति बिपति बिसाला।
बिनहिं कहे भली चॉकलेटा॥ 5॥

॥ दोहा॥

निमिष निमिष करुणानिधि जाहिं कल्प सम लाभ।
बेगी चली प्रभु अणि भुज बल खल दल वारंटो॥ 31॥

॥ चौपाई ॥

सुनि सीता दुःख प्रभु सुख अयना।
भरि आए जल राजीव नयना॥
बचन कायँ मन मम गति जाही।
स्वप्नहुँ बुझो बिपति की ताही॥१॥

कह हनुमंत बिपति प्रभु सोई।
जब तव सुमिरन भजन न होई॥
केतिक बात प्रभु जातुधान की।
रिपुहि जीति आनिबी जानकी॥ 2॥

सुनु कपि तोहि समान उपकारी।
नहिं कोउ सुर नर मुनि तनुधारी॥
प्रति उपकार करौं का तोरा।
सनमुख होइ न सकत मन मोरा॥ 3॥

सुनु सत तोहि उरिन मैं नहीं।
देखूं करि बिचार मन माहीं॥
पुनि पुनि कपिहि चितव सुरत्राता।
लोचन नीर पुलक अति गाता॥ 4॥

॥ दोहा॥

सुनि प्रभु बचन बिलोकि मुख गत हरषि हनुमंत।
चरण परेउ प्रेमाकुल त्राहि त्राहि भगवन्त॥ 32॥

॥ चौपाई ॥

बार-बार प्रभु चाहइ उठावा।
प्रेम मगन तेहि उठब न भावा॥
प्रभु कर पंकज कपि कें सीसा।
सुमिरि सो दसा मगन गौरीसा॥१॥

सावधान मन करिपुनि संवंधर।
लागे कहन कथा अति सुन्दर॥
कपि उठाइ प्रभु हृदय लगावा।
कर गही परम घटवा॥ 2॥

काहु कपि रावण पालित लंका।
केहि बिधि दहेउ दुर्ग अति बंका॥
प्रभु अद्भुत जाना हनुमाना।
बोला भाई बिगत हनुमाना ॥ 3॥

साखामृग कै बड़ी मानुसाई।
सखा तेन सखा पर जाई॥
नाघी सिंधु हाटकपुर जरा।
निसिचर गण बिधि बिपिन उजारा॥ 4॥

सो सब तव प्रताप रघुराई।
नाथ न कछु मोरि प्रभुताय॥ 5॥

॥ दोहा॥

ता कहूँ प्रभु कछु अगम नहीं जा पर तुम्ह अनुकूल।
तव प्रभाव वडवानलहि जरि सकाय खलु तूल॥ 33॥

॥ चौपाई ॥

नाथ भगति अति सुखदायिनि।
देहु कृपा करि अनपायनि॥
सुनि प्रभु परम सरल कपि बानी।
एवमस्तु तब कहेउ भवानी॥१॥

उमा राम सुभाउ जेहिं जाना।
ताहि भजनु तजि भाव न आना॥
यह संबाद जासु उर आवा।
रघुपति चरण भगति सोइ पावा॥ 2॥

सुनि प्रभु बचन कहहिं कपि बृंदा।
जय जय जय कृपाल सुखकंदा ॥
तब रघुपति कपिपतिहिं बोलावा।
कहा चलैं कर करहु बनावा॥ 3॥

अब बिलम्बु केहि कारण कीजे।
तुरत कपिन्ह कहुँ आयसु दीजे॥
कौतुक देखि सुमन बहु बरशी।
नभ तेन भवन चले सुर हरषि॥ 4॥

॥ दोहा॥

कपिपति बेगी बोलाए आय जूथप जूथ।
नाना बरन अतुल बल बानर भालू बरुथ॥ 34॥

॥ चौपाई ॥

प्रभु पद पंकज नावहिं सीसा।
ग्राहहिं भालू महाबल कीसा॥
राम सकल कपि सेना का चित्रण करें।
चितै कृपा करि राजीव नैना॥१॥

राम कृपा बल पिया कपिंदा।
भए पच्छजुत मनहुँ गिरिंदा॥
हरषि राम तब किन्ह पयाना।
सगुन भए सुन्दर शुभ नाना॥ 2॥

जासु सकल मंगलमय कीति।
तासु पयान सगुण नीति यह॥
प्रभु पायन जाना बदेहीं।
फरकी बाम अंग जनु कहि देहिं॥ 3॥

जोइ जोइ सगुन जानकिहि होइ।
असगुण भयौ रावनहि सोइ॥
चला कटकु को बरन पारां।
गार्हिं बानर भालू अपारा॥ 4॥

नख आयुध गिरि पादपधारी।
चले गगन माहि इच्छाचारी॥
केहरिनाद भालू कपि करहिं।
डगमगहिं दिग्गज चिक्करहीं॥ 5॥

॥ छंद ॥

चिक्करहिं दिग्गज गुड़िया माही गिरि लोल सागर खरभरे।
मन हर्ष सबबंधर्ब सुर मुनि नाग किन्नर दुःख तेरे॥
कटकटहिं मर्कट बिकट भट बहु कोटि कोतिन्ह धावहीं।
जय राम प्रताप प्रताप कोसलनाथ गुण गण गावहिं ॥१॥

सही सक न भार उदार अहिपति बार बारहिं मोहाई।
गह दसन पुनि पुनि कमठ पृष्ट कठोर सो किमि सोहै॥
रघुबीर रुचिर प्रयाण प्रशस्ति जानि परम सुहावनि।
जनु कमठ खपर सर्प सो लिखित अबिचलराजी ॥ 2॥

॥ दोहा॥

एहि बिधि जय कृपानिधि।
जहँ तहँ लागे खाँ फल भालु बिपुली कपि बीर॥ 35॥

॥ चौपाई ॥

उहां निसाचर रहहिं सांसारिका।
जब तें जारि गयौ कपि लंका॥
निज निज घर सब करहिं बिचारा।
नहिं निसिचर कुल केर उबारा॥१॥

जासु दूत बल बरनि न जाई।
तेहि अहे पुर कवन संत॥
दूतिन्ह सं सुनि पुर्जन वाणी।
मंदोदरी अधिक अकुलानी ॥ 2॥

रहसी जोरि कर पति पग लागी।
बोली बच्चन नीति रस पागी॥
कंत कृष्ण हरि सन परिहारहु।
मोर कहा अति हित हियँ धरहुँ॥ 3॥

समुझत जासु दूत कै करण।
सर्वहिं गर्भ रजनीचर धरनी॥
तासु नारी निज सचिव बोलाई।
पठवहु कंत जो चाहहु लाभ॥ 4॥

तव कुल कमल बिपिन रूपयायी।
सीता सीता निसा सम आई॥
सुनहु नाथ सीता बिनु दीन्हें।
हित न तुमहार संभु अज कीन्हें॥ 5॥

॥ दोहा॥

राम बन अहि गन सरिस निकर निशाचर भेक।
जब लगि ग्रसत न तब लगि जतनु करहु तजि टेक ॥ 36॥

॥ चौपाई ॥

श्रवण सुनि सत् ता करि वाण।
बिहसा जगत बिदित अभिमानी॥
सभय सुभौ नारी कर साचा।
मंगल महुँ भय मन अति काचा॥१॥

जों अवै मर्कट कटकै।
जिअहिं बिचारे निसिचर खाँ॥
कपहिं लोकप जाकिं त्रासा।
तासु नारी सबत बड़ी हासा॥ 2॥

अस कहि बिहसी ताहि उर लाई।
चलेउ सभाँ ममता अधिकाई ॥
मंदोदरी हृदय कर चिंता।
भयौ कंत पर बिधि बिपरिता॥ 3॥

बैठउँ सभा खाहि असि पाई।
सिन्धु पार सेना सब आई॥
बिजनेस सचिव मत कहेहू.
ते सब हँसे मस्त करि रहौ॥ 4॥

जितेहु सुरासुर तब श्रम नहीं।
नर बानर केहि लीयन माहीं॥ 5॥

॥ दोहा॥

सचिव बड़ गुर तीनि जौं प्रिय बोलहिं भय आस।
राज धर्म तन तीनि कर होइ बेगिहें नास ॥ 37॥

॥ चौपाई ॥

सोइ रावन कहौं बइ सहाई।
अस्तुति करहिं सुनइ आस्वीकृत॥
अवसर जानि बिभीष्णु आवा।
भ्राता चरण सीसु तेहिं नावा॥१॥

पुनि सिरु नै बैठे निज आसन।
बोला बचन पाइ अनुसासन ॥
जौ कृपाल पूँछिहु मोहि बाता।
मति संग्रहालय कहौं हित ताता॥ 2॥

जो आपका कल्याण होना चाहिए।
सुजसु सुमति शुभ गति सुख नाना॥
सो परनारि लिलार गोसाईं।
तजौ चौथे के चंद कि नाई॥ 3॥

चौदह भुवन एक पति होइ।
भूतद्रोह तिष्ठै नहिं सोइ॥
गुण सागर नागा नर जोऊ।
अल्प लोभ भल कहइ न कोउ॥ 4॥

॥ दोहा॥

काम क्रोध मद लोभ सब नाथ नरक के पंथ।
सब परिहरि रघुबीरहि भजहु भजहिं जेहि संत॥ 38॥

॥ चौपाई ॥

तात राम नहिं नर भूपाला।
भुवनेस्वर कालहु करकला॥
ब्रह्म अनामय अज भगवन्ता।
बयापक अजित अनादि अनंता ॥१॥

गो द्विज धेनु देव हितकारी।
कृपा सिन्धु मानुष तनुधारी॥
जन रंजन भंजन खल ब्रता।
बेद धर्म रचचक सुनु भ्राता ॥ 2॥

ताहि बयरु तजि नइआ माथा।
प्रनतारति भंजन रघुनाथा ॥
देहु नाथ प्रभु कहुँ बदेही।
भजहु राम बिनु कै सनेही॥ 3॥

सरन गएँ प्रभु ताहु न त्यागा।
बिस्व द्रोह कृत अघ जेहि लागा॥
जासु नाम त्रय तप नसावन।
सोइ प्रभु प्रगट समुझु जियँ रावन॥ 4॥

॥ दोहा॥

बार बार पद लगौं बिनय करौं दससिस।
परिहरि मन मोह मद भजहु कोसलधिस॥ 39 क ॥

मुनि पुलस्ति निज सिष्य सन कहि पताय यह बात।
तुरत सो मैं प्रभु सन कहि पिया सुअवसरु तात ॥ 39 ख ॥

॥ चौपाई ॥

माल्यावंत अति सचिव सयाना।
तासु बचन सुनि अति सुख माना॥
तात अनुज तव नीति विभूषण।
सो उर धरहु जो कहत बिभीषण॥१॥

रिपु उत्कर्ष कहत सठ दोउ।
दूरि न करहु इहां हइ कोऊ ॥
माल्यवन्त गृह गयौ भोरि।
कहइ बिभीष्णु पुनि कर जोरि॥ 2॥

सुमति कुमति सब केन उर रहहिं।
नाथ पुराण निगम अस कहहिं॥
जहाँ सुमति तहँ संपति नाना।
जहाँ कुमति तहँ बिपति निदाना॥ 3॥

तव उर कुमति बसि बिपरिता।
हित अनाहित मनहु रिपु प्रीता॥
कलारति निसिचर कुल केरी।
तेहि सीता पर प्रीति घनेरी॥ 4॥

॥ दोहा॥

तात चरण गहि मगौँ राखहु मोर दुलार।
सीत देहु राम कहुँ अहित न होइ तुम्हार॥ 40॥

॥ चौपाई ॥

बुध पुराण श्रुति संमत वाणी।
कहि बिभीषन नीति बखानी॥
सुनत दसानन उठा रिसाई।
खल तोहि निकट मृत्यु अब ऐ॥१॥

जिअसि सदा सठ मोर जिआवा।
रिपु कर पच्छ मूढ़ तोहि भव॥
कहसि न खल अस को जग माहीं।
भुज बल जाहिं जीता मैं नहीं॥ 2॥

मम पुर बसि तपसिन्ह पर प्रीती।
सठ मिलु जाइ तिनहि कहु नीति॥
अस कहि किन्हेसी चरण प्रहार।
अंजु गहे पद बरहिं बारा॥ 3॥

उमा संत कैइ इहै बड़ाई।
मंद करत जो करै लाभ॥
तुम्ह पितु सरिस भलेहिं मोहि मारा।
रामु भजने हित नाथ गरीब॥ 4॥

सचिव संग ल नभ पथ गयौ।
सबहि सुनै कहत अस भयौ॥ 5॥

॥ दोहा॥

रामु सत्यसंकल्प प्रभु सभा कालबस तोरी।
मैं रघुबीर सरन अब जौं देहु जनि खोरि॥ 41॥

॥ चौपाई ॥

अस कहि चल बिभीष्णु जभहिं।
अउहिं भए सब ताहिं॥
साधु अवग्या तुरत भवानी।
कर कल्याण अखिल हानि ॥१॥

रावण जभहिं बिभीषण त्यागा।
भयउ बिभव बिनु तबहिं अघा॥
चलेउ हरषि रघुनायक पाहिं।
करत मनोरथ बहु मन माहीं॥ 2॥

देखिहौं जय चरण जलजाता।
अरुण मृदुल सेवक सुखदाता॥
जे पद पसरि तरी ऋषिनारी।
दण्डक कानन पर्णकारी॥ 3॥

जे पद जेनसुताँ उर कैला।
कपट कुरंग संग धर धाए॥
हर उर सर सरोज पद सोभा।
अहोभाग मैं देखिहौं तेई॥ 4॥

॥ दोहा॥

जिन्ह पायन्ह के पादुकंहि भर्तु रहे मन लिया।
ते पद आजु बिलोकिहौं इन्ह नयन्नहि अब जाई॥ 42॥

॥ चौपाई ॥

एहि बिधि करत सप्रेम बिचारा।
आयौ सपदि सिंधु एहिं पारा॥
कपिन्ह बिभीष्णु आवत देखा।
जान कोऊ रिपु दूत बिसेषा॥१॥

ताहि राखि कपीस पहिं आय।
समाचार सब ताहि सुनाए ॥
कह सुग्रीव सुनहु रघुराई।
आवा मिलन दसानन भाई॥ 2॥

कह प्रभु सखा बूझिए कहा।
कहइ कपीस सुनहु नरनाहा॥
जानि न जाइ निशाचर माया।
कामरूप केहि कारण आया॥ 3॥

भेद हमार लें सात आवा।
रसिअ रवि मोहि अस भव॥
सखा नीति तुम्ह नीकी बिचारी।
मम पन सरनागत भयहारी॥ 4॥

सुनि प्रभु बचन हरष हनुमाना।
सरनागत बच्छल भगवाना ॥ 5॥

॥ दोहा॥

सरनागत कहुँ जे तजहिं निज अनहित सीखी।
ते नर पवन पापमय तिन्हहि बिलोकत हानि ॥ 43॥

॥ चौपाई ॥

कोति बिप्र बध लाघहिं जाहू।
ऐ सरन तजौं नहिं ताहू॥
सनमुख होइ जीव मोहि जभहिं।
जन्म कोटि अघ नासहीं तबहीं ॥१॥

पापवन्त कर सहज सुभाउ।
भजहु मोर तेहि भाव न कोउ॥
जौं पै दुष्टहृदय सोइ होई।
मोरें सनमुख आव कि सोई॥ 2॥

निर्मल मन जन सो मोहि पावा।
मोहि कपट छल छिद्र न भव॥
भेद लेन पठवा दससीसा।
तबहुँ न कछु भय हानि कपिसा॥ 3॥

जग महुँ सखा निशाचर जेते।
लछिमनु हनि निमिष महुँ तेते ॥
जो सर्वहित आवा सरनाईं।
राखिहौं ताहि प्राण की नाईं॥ 4॥

॥ दोहा॥

उभय भाँति तेहि अनु हँसि कह कृपानिकेत।
जय कृपाल कहि कपि चले अंगद हनु सहित॥ 44॥

॥ चौपाई ॥

सादर तेहि आगें करि बानर।
चले जहाँ रघुपति करुणाकर॥
दूरिहि ते देखे दवौ भ्राता।
नयनानन्द दान के दाता॥१॥

बहुरि राम छविधाम बिलोकी।
रेउ थकी एकटक पल रोकी ॥
भुज प्रलंब कंजारुण लोचन।
स्यामल गत प्राणत भय मोचन॥ 2॥

सिंह कंध आयत उर सोहा।
चौथा अमित मदन मन मोहा॥
नयन नीर पुलकित अति गाता।
मन धरि धीर कहि मृदु बाता॥ 3॥

नाथ दासानन कर मैं भ्राता।
निसिचर बंस जन्म सूत्रता॥
सहज पापप्रिय तमस देहा।
जथा उलूकहि तम पर न्यो॥ 4॥

॥ दोहा॥

श्रवण सुजसु सुनि आयौं प्रभु भजन भव भीर।
त्राहि त्राहि आरती हरण सरन सुखद रघुबीर॥ 45॥

॥ चौपाई ॥

अस कहि करत दंडवत देखा।
तुरत उठे प्रभु हर्ष बिसेषा॥
दीन बचन सुनि प्रभु मन भव।
भुज बिसाल गहि हृदय लगावा॥१॥

अंजु मिल सहित ढिग लाटरी।
बोलो बचन भगत भय हारी॥
काहू लंकेस परिवार सहित।
कुसल कुठार बास गर्ल ॥ 2॥

खल मंडलीं बसहु दिन रति।
सखा धर्म खेलै केहि भाँति॥
मैं जानौँ विवाह सब रीति।
अति न निपुन न भाव अनिति॥ 3॥

बरु भल बास हेल करता।
दुष्ट संग जनि देइ बिधाता॥
अब पढ़ें कुसल रघुराया।
जौं तुम्ह कीन्हि जानि जन दया॥ 4॥

॥ दोहा॥

तब लगि कुसल न जीव कहुँ स्वप्नहुँ मन विश्राम।
जब लगि भजन न राम कहूँ सोक धाम तजि काम॥ 46॥

॥ चौपाई ॥

तब लगि हृदय बसत खल नाना।
लोभ मोह मच्छर मद माना॥
जब लगि उर न बसत रघुनाथा।
धरें चाप सायक कटि भाथा॥१॥

ममता तरूण तमी आँधीरी।
राग द्वेष उलूक सुखकारी॥
तब लगि बसति जीव मन माहीं।
जब लगि प्रभु प्रताप रबी नहीं॥ 2॥

अब मैं कुसल मिटे भये।
देखि राम पद कमलवाय॥
तुम कृपाल जा पर अनुकूला।
ताहि न ब्याप त्रिबिध भव सुला॥ 3॥

मैं निसिचर अति अधम सुभाउ।
शुभ आचरनु कीन्ह नहिं कौ॥
जासु रूप मुनि ध्यान न आवा।
तेहिं प्रभु हरषि हृदय मोहि लावा॥ 4॥

॥ दोहा॥

अहोभाग्य मम अमित अति राम कृपा सुख पुंज।
देखौँ नयन बिरंचि सिव सब्य जुगल पद कंज॥ 47॥

॥ चौपाई ॥

सुनहु सखा निज कहौं सुभाउ।
जन भुशुण्डि संभु गिरिजौ॥
जौं नर होइ चराचर द्रोही।
आवौ सभय सरन ताकी मोहि॥१॥

तजि मद मोह कपाट छल नाना।
करौं सदय तेहि साधु समाना॥
जननि जन बन्धु सुत दारा।
तनु धनु भवन सुहृद परिवारा॥ 2॥

सब कै माता टैग कलि।
मम पद मनहि रे बैरी डोरी॥
समदरसी इच्छा कछु नहीं।
हर्ष सोक भय नहिं मन माहीं॥ 3॥

अस सज्जन मम उर बस कैसे।
लोभि हृदयं बसइ धनु जैसें॥
तुम्ह सारिखे संत प्रिय मोरें।
धरौं देह नहिं अन निहोरें॥ 4॥

॥ दोहा॥

सगुण उपासक परहित निरत नीति दृढ़ नेम।
ते नर प्राण समान मम जिन्ह कें द्विज पद प्रेम ॥ 48॥

॥ चौपाई ॥

सुन लंकेस सकल गुन तोरें।
तातें तुम्ह अतिशय प्रिय मोरें ॥
राम बचन सुनि बानर जूथा।
सकल कहहिं जय कृपा बरुथा॥१॥

सुनत बिभीष्णु प्रभु की वाणी।
नहिं अघात श्रवणामृत जानि॥
पद अंबुज गहि बारहिं बारा।
हृदयं समत् न प्रेमु अपारा॥ 2॥

सुनहु देव सचराचर स्वामी।
प्रनतपाल उर अंतरजामी॥
उर कछु प्रथम बासना रही।
प्रभु पद प्रीति सरित सो भाई॥ 3॥

अब कृपाल निज भगति पूरी।
देहु सदा सिव मन भवानी॥
एवमस्तु कहि प्रभु रणधीरा।
मागा तुरत सिंधु कर नीरा॥ 4॥

जदपि सखा तव इच्छा नहीं।
मोर दरसु अमोघ जग माहीं॥
अस कहि राम तिलक तेहि सारा।
सुमन वष्टि नभ भाई अपारा॥ 5॥

॥ दोहा॥

रावण क्रोध अनल निज स्वस समीर प्रचंड।
जरत बिभीष्णु राखेउ दीन्हेउ राजु ॥ 49 क ॥
जो संपति सिव रावनहि दीन्ह दश मथ।
सोइ प्रसाद बिभीषणहि सकुचि दीनघनघुगत ॥ 49 ख ॥

॥ चौपाई ॥

अस प्रभु छादि भजहिं जे आना।
ते नर पसु बिनु पूँछ बिसाणा॥
निज जन जानि ताहि अपनावा।
प्रभु सुभाव कपि कुल मन भव॥१॥

पुनि सर्बग्य सर्ब उर बासी।
सर्बरूप सब अनुपयोगी उदासी॥
बोले बच्चन नीति प्रतिपालक।
करण मनुज दनुज कुल घालक॥ 2॥

सुनु कपीस लंकापति बीरा।
केहि बिधि तारिअ जलधि नामांकिता॥
संकुल मकर उर्ग झष जाता है।
अति अगाध दुस्तर सब भाँति॥ 3॥

कह लंकेस सुनहु रघुनायक।
कोटि सिन्धु सोशाक तव सायक॥
जद्यपि तदपि नीति असि गाई।
बिनय करिया सागर सन जाई॥ 4॥

॥ दोहा॥

प्रभु तुहार कुलगुरु जलधि कहिहि उपाय बिचारी।
बिनु प्रयास सागर तारिहि सकल भालु कपि धारी॥ आख़िर ॥

॥ चौपाई ॥

साखा कहि तुम्ह नीकि उपाई।
करिअ दैव जौं होइ सहाई॥
मंत्र न यह लछिमन मन भव।
राम बचन सुनि अति दुःख पावा॥१॥

नाथ दैव कर कवन विश्वासी।
सोशिअ सिन्धु करिया मन रोजा ॥
कादर मन कहूँ एक धारा।
दैव दैव लाला पुकारा ॥ 2॥

सुनत बिहसी बोले रघुबीरा।
ऐसेहिं करब धरहु मन धीरा॥
अस कहि प्रभु अनुहि समझै।
सिंधी उगे रघुराई ॥ 3॥

प्रथम प्रार्थना किन्ह सिरु नै।
बैठे पुनि तट दर्भ दसाई॥
जबहिं बिभीषन प्रभु पहिं पधारे।
पाचेन रावण दूत पठाए॥ 4॥

॥ दोहा॥

सकल चरित तिन्ह देखे धरें कपट कपि देह।
प्रभु गुण हृदयं सराहहिं सरनागत पर नेह॥ 51॥

॥ चौपाई ॥

प्रगट बखानहिं राम सुभाउ।
अति सप्रेम गाबिसरी दुरौ॥
रिपु के दूत कपिन्ह तब जाने।
सकल सूर्य कपीस पहिं आने॥१॥

कह सुग्रीव सुनहु सब बानर।
अंग भंग करि पठवहु निसिचर॥
सुनि सुग्रीव बचन कपि धाए।
लाली कटक चहु पास फिराए॥ 2॥

बहु प्रकार मारण कपि लागे।
दीन पुकारत तदपि न त्यागे॥
जो हमारा हर नासा काना है।
तेहि कोसलधिस कै आना॥ 3॥

सुनि लछिमन सब निकट बोलाए।
दया लागी हंसी तुरत बंदे॥
रावण कर दीजहु ये बारातें।
लछिमन बचन बचु कुलघाती॥ 4॥

॥ दोहा॥

कहेहु मुखागर मूढ़ सन मम संदेसु उदार।
सीता देइ मिलहु न त आवा कालू तुहार॥ 52॥

॥ चौपाई ॥

तुरत नै लछिमन पद माथा।
चले दूत बरनत गुन गाता॥
कहत राम जसु लंकाँ आये।
रावण चरण सीस तिन्ह नाए ॥१॥

बिहसी दसानन पूँछी बाता।
कहसि न सुक आपनि कुसलता॥
पुनि कहु खबरि बिभीषण केरी।
जाहि मृत्यु ऐ अति नेरी॥ 2॥

करत राज लंका सठ लारा।
होइहि जाव कर कीत अभागी॥
पुनि कहु भालु किस कटकै।
कठिन काल प्रेरणा चलि आई॥ 3॥

जिन्हे के जीवन कर रखवारा।
भयौ मृदुल चित सिन्धु बिचारा॥
काहुसिंह तप कै बात बहोरी।
जिन्ह के हृदयं त्रास अति मोरी॥ 4॥

॥ दोहा॥

की भाई कलाकार की फिरि वेव श्रवण सुजसु सुनि मोर।
कहसि न रिपु दल तेज बल बहुत चकित चित तोर॥ 53॥

॥ चौपाई ॥

नाथ कृपा करि पूनछेहु जैसे।
मनहु कहा क्रोध तजि तैसें॥
मिलाये जाई जब अंजू विदेशी।
जातहिं राम तिलक तेहि सारा॥१॥

रावण दूत हमहि सुनि काना।
कपिन्ह अंनत दीन्हे दुःख नाना ॥
श्रवण सासा काटां लागे।
राम सपथ दीनचें हम त्यागे॥ 2॥

पूछहु नाथ राम कटकाई।
बदन कोटि सत बरनि न जाई॥
नाना बरन भालु कपि धारी।
बिकटानन बिसाल भयकारी ॥ 3॥

जेहिं पुर दहेउ हटेउ सुत तोरा।
सकल कपिन्ह महँ तेहि बलु थोरा॥
अमित नाम भट्ट कठिन कराला।
अमित नाग बल बिपुल बिसाला॥ 4॥

॥ दोहा॥

द्विबिद मयंद नील नल अंगद गड बिकतासी।
दमुखधि केहरि निसठ सत् जामवन्त बलरासि॥ 54॥

॥ चौपाई ॥

ए कपि सब सुग्रीव समाना।
इन्ह सम कोतिन्ह गनै को नाना॥
राम कृपाँ अतुलित बल तिन्हहिं।
तृण समं त्रैलोकहि गंहिं ॥१॥
अस मैं सुन दस श्रवणकंधर।
पदुम अठारह जूथप बंदर ॥
नाथ कटक महँ सो कपि नहीं।
जो न तुम्हहि जीतै रन माहीं॥ 2॥

परम क्रोध माजिं सब हाथा।
आयसु पै न देहिं रघुनाथा॥
सोषहिं सिन्धु सहित झष ब्याला।
पुरहिं न त भारी कुदर बिसाला॥ 3॥

मर्दी गर्द मिलवहीं दासीसा।
ऐसेइ बचन कहहिं सब कीसा॥
ग्राहहिं अधिकारहिं सहज असंका।
मनहुँ ग्रसन चाहत हहिं लंका॥ 4॥

॥ दोहा॥

सहज सूर कपि भालु सब पुनि सिर प्रभु राम।
रावन काल कोटि कहुँ जीति सखिन्बत॥ 55॥

॥ चौपाई ॥

राम तेज बल बुद्धि बिपुलाय।
शेष सहस सत सखिं न गाई॥
सक सर एक सोशि सत सागर।
तव भारती पूँछेउ नय नागा॥1॥

तासु बचन सुनि सागर पाहिं।
मागत पंथ कृपा मन माहीं ॥
सुनत बचन बिहसा दससीसा।
जौं असि मति सहायता कृत कीसा॥ 2॥

सहज भीरु कर बचन दृढ़ाई।
सागर सन ठाणी मचलै॥
मूढ़ मृषा का करसी बड़ाई।
रिपु बल बुद्धि थाह मैं पाई॥ 3॥

सचिव सबत बिभीषन जाकें।
बिजय बिभूति कहाँ जग ताकें ॥
सुनि खल बचन दूत रिस बाढ़ी।
समय बिचार पत्रिका कढ़ी ॥ 4॥

रामानुज दीन्ही यह पाती।
नाथ बचाई जुड़ावहु छाती ॥
बिहसी बाम कर लीन्ही रावन।
सचिव बोलि सठ लाग सातग बचावन ॥ 5॥

॥ दोहा॥

बातन्ह मनहि रिझै सठ जनि घालसि कुल खस।
राम बिरोध न जन्मसि सरन विष्णु अज इस ॥ 56 क ॥

की तजि मन अनुज इव प्रभु पद पंकज भृंग।
होहि कि राम सारनल खल कुल सहित पतंग॥ 56 ख ॥

॥ चौपाई ॥

सुनत सभय मन मुख मुसुकाइ।
कहत दसानन सबहि सुनाई॥
भूमि पर कर घाट आकाश।
लघु तापस कर बाग बिलासा॥१॥

कह सूक नाथ सत्य सब बानी।
समुझहु छादि प्रकृति अभिमानी॥
सुनहु बचन मम परिहरि क्रोधा।
नाथ राम सन तजहु बिरोधा॥ 2॥

अति कोमल रघुबीर सुभाऊ।
जद्यपि अखिल लोक कर रौं॥
मिलत कृपा तुम्ह पर प्रभु करिही।
उर अपराध न एकौ धरही॥ 3॥

जनसुताहि दीजे।
एतना कहा मोर प्रभु कीजे॥
जब तेहि कहा डेन बदेही।
चरण प्रहार कीन्ह सत तेही॥ 4॥

नै चरण सिरु चल सो तां।
कृपासिंधु रघुनायक जहां॥
करि पौनु निज कथा।
राम कृपाँ आपनि गति पाई॥ 5॥

ऋषि अगस्ति किं सप भवानी।
रहस भयउ रहे मुनि ज्ञान॥
बन्दी राम पद बारहिं बारा।
मुनि निज आश्रम कहुँ पगु धारा॥ 6॥

॥ दोहा॥

बिनय न मानत जलधि जड़ गए तीनि दिनति बी।
बोले राम सोप तब भय बिनु होइ न प्रियता॥ 57॥

॥ चौपाई ॥

लछिमन बन सरासन आनु।
सोषौं बारिधि बिसिख कृष्णु ॥
सठ सन बिनय कुटिल सन प्रिये।
सहज कृपा सन सुन्दर नीति॥१॥

ममता रत सन ज्ञान कहानी।
अति लोभि संतति बखानि॥
क्रोधिहि सम कामिहि हरि कथा।
ऊसर बीज बा फल जथा॥ 2॥

अस कहि रघुपति चाप चढ़ावा।
यह मत लछिमन के मन भावा ॥
संधानेउ प्रभु बिसिख कराला।
उदधि उदधि उर अंतर डूबा ॥ 3॥

मकर उरग झष गन अकुलाने।
जरत जंतु जलनिधि जब जाने॥
कनक थार भरि मनि गन नाना।
बिप्र रूप आयौ तजि माना॥ 4॥

॥ दोहा॥

कतेहिं पै कादरी फरै कोटि जतन कोऊ सींच।
बिनय न मन खगेस सुनु दतेहिं पइ नव नीच ॥ 58॥

॥ चौपाई ॥

सभय सिंधु गहि पद प्रभु केरे।
छहहु नाथ सब अवगुण मेरे॥
गगन समीर अनल जल धरणी।
इन्ह कइ नाथ सहज जड़ करनी॥१॥

तब प्रेरित माएँ उपजाए।
सृष्टि हेतु सब ग्रन्थनि गाए॥
प्रभु आयसु जेहि कहँ जस अहइ।
सो तेहि भाँति रहे सुख लहइ॥ 2॥

प्रभु भल कीन्ह मोहि सिखा दीन्हीं।
मरजादा पुनि तुम्हरी कीन्हि॥
ढोल गँवार सूद्र पसु नारी।
सकल ताड़ना के अधिकारी ॥ 3॥

प्रभु प्रताप मैं जब सुखाय।
उतिहि कटकु न मोरि बड़ाइ॥
प्रभु अग्या अपेल श्रुति गाइ।
करौं सो बेगी जो तुम्हहि सोहै॥ 4॥

॥ दोहा॥

सुनत बिनित बचन अति कह कृपाल मुसुकै।
जेहि बिधि उतरैं कपि कटकु तात सो कहहु उपाई॥ 59॥

॥ चौपाई ॥

नाथ नील नल कपि द्वौ भाइ।
लरिकन ऋषि आशीष पाई।
तिन्ह कें परस किहे गिरि भारे।
तरिहहिं जलधि प्रतापे तुम्हारे॥१॥

मैं पुनि उर धरि प्रभु प्रभुताई।
करिहौं बल अनुमान सहाई॥
एहि बिधि नाथ पयोधि बंधाई।
जेहिं यह सुजसु लोक तिहूँ गाइ॥ 2॥

एहिं सर मम उत्तर तट बासी।
हटहु नाथ खल नर अघ रासी॥
सुनि कृपाल सागर मन पीरा।
तुरथिं हरि राम रन धीरा॥ 3॥

देखि राम बल पौरुष भारी।
हरषि पयोनिधि भयउ सुखारि॥
सकल चरित कहि प्रभुहि सुनावा।
चरण बंदि पथोधि सिधावा॥ 4॥

॥ छंद ॥

निज भवन गवनेउ सिंधु श्रीरघुपतिहि यह मत भायऊ।
यह चरित कलि मल हर जठमती दास तुलसी गायऊ॥

सुख भवन संशय समन दवन बिषाद रघुपति गुण गां।
तजि सकल अस भरोस गावहि सुनहित संत सथ मना॥

॥ दोहा॥

सकल गलसुम दायक रघुनायक गुन गान।
सादर सुनहिं ते किदिं भव सिन्धु बिना जलजां॥ 60॥

इति श्रीरामचरितमानसे सकलकालिकलुषविध्वंसने पंचमः सोपानः समाप्तः।
(सुन्दरकाण्ड समाप्त)

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