श्री वर्धमान स्तोत्र लिरिक्स | Shree Vardhman Strotra Lyrics

Vardhman Strotra Lyrics

Jain Strotra lyrics

वर्धमान जिनदेव युगल पद, लालकमल से शोभित है।
जिनके अंगुली की नख आभा, से सबका मन मोहित है।
देवो के मुकुटों की मणियाँ, नख आभा में चमक रही।
उन चरणों की भक्ति से मम, मति थुति करने मचल रही। 1 

नहीं अहंकृत होकर के मैं, नहीं चमत्कृत होकर के।
बुद्धि की उत्कटता से ना, नहीं दीनता मन रख के।
वीर प्रभु की गुण-पर्यायों, से युत नित चेतनता में।
लीन हुआ है मेरा मन यह, अतः संस्तवन करता मैं। 2 

उच्च कुलों में पैदा होना, सुख साधन सब पा लेना।
सुन्दर देह भाग्य भी उत्तम, धन वैभव भी पा लेना।
मोक्ष मार्ग के लायक ये सब, पुण्य फलों को ना मानू।
भक्ति करन का मन यदि होता, पुण्य फल रहा मैं जानूँ। 3 

मैं अवश्य भक्ति करने को, अब मन से तैयार हुआ। 
मुझमें बुद्धि छन्द कला वा, शक्ति है या नहीं पता। 
माँ समक्ष ज्यों बालक करता, तज लज्जा मैं करुँ कथा। 4  

सामायिक में नित चिंतन में, शास्त्रपाठ के क्षण में भी। 
जो सन्मति को याद कर रहा, नित्य ह्रदय रति धर के ही। 
सकल पुण्य की लक्ष्मी उसके, हाथ स्वयं आ जाती है। 
ऐसा लख फिर किस ज्ञानी को, प्रभु भक्ति ना भाती है। 5 

जो उत्पन्न हुआ जिन कुल में, वीरवंश का वह है पूत। 
वीर प्रभु को छोड़ अन्य को, मान रहा क्यों तू रे भूत। 
सूरज का फैला नहीं दिखता, धरती पर चहुँ ओर प्रकाश। 
जन्म समय से अंध बने वे, या फिर उल्लू सा आभास। 6 

राग द्वेष से सहित रहे जो, ऐसे देवों की सेवा। 
क्या अतिशय फल दे सकती है, सेवा शिवसुख की मेवा। 
श्री जिनवर है कल्पवृक्ष सम, उनकी सेवा सदा करो। 
कल्पवृक्ष की सेवा भी क्या, अल्पफला या निष्फल हो। 7 

भवनवासी व्यंतर देवों  के, सुर समूह से वन्दित है। 
जिनवर के चरणों में झुक वे, सुख पाते आनन्दित है। 
देवों के भी देव प्रभु का नाम, मंत्र है पूजित है। 
सब अनिष्ट यदि  हो गए, बड़ी बात क्यों विस्मित है। 8  

भले बना हो कलिकाल का, प्रभाव सब पर दुखदायी। 
 दर्शन मनन, सुनाम आपका, बिम्ब मात्र भी सुखदायी। 
सिद्ध किया ही गरुड़मन्त्र ही, जिसके हाथ पहुंच जाएँ। 
काल सर्प के योग भयों से, फिर किसका मन डर पाये। 9 

राग रोग का नाश करुँ मैं, दिखता वैध नहीं कोई। 
अष्ट कर्म बंधन मिट जाए, नहीं रसायन है कोई। 
जो जिस विद्या नहीं जानता, नहीं प्रमाणिक वह ज्ञानी। 
वैद्य आप हो अतः बन गयी महा रसायन तव वाणी। 10 

शस्त्र अस्त्र से सहित हुए जो, ब्रहकुटी चढ़ रही लाल नयन। 
ममता पाप दुःख ले बैठे, देह विरुप क्रूर है मन। 
लोग इन्हे भी प्रभु मानते, जिस जग में प्रभु आप रहे। 
चेतन ज्ञान प्रकाश दिखे ना, और अंधता किसे कहे ? 11

तीर्थंकर शुभ नाम कर्म के, पुण्य उदय की महिमा से। 
चार घातिया पाप नाश से, तीर्थोदय की गरिमा से 
पुण्य उदय से उदित तीर्थ ही, वीर आत्महित का कारण। 
बने पुण्य के द्वेषी उनको, हो तब महिमा क्यों धारण ? 12 
गर्भ समय के कल्याणक में, प्रतिदिन रत्नों की वर्षा। 
जन्म समय के कल्याणक में, सकल लोक में सुख हर्षा। 
सूक्ष्म रूप से तव गुण गण को, गिनने में हो कौन समर्थ ?
दश अतिशय जो मूर्त रूप है, समझो उनमें कितना अर्थ। 13 

स्वेद रहित है निर्मल है तनु, परमौदारिक सुंदर रूप। 
प्रथम संहनन पहली आकृति, शुभ लक्षणयुत सौरभ कूप। 
अतुलनीय है शक्ति आपकी, हित-मित-प्रिय वचनामृत है। 
दुग्धरंग सम रक्त देह का, दश अतिशय परमामृत है। 14 

कोस चार सौ तक सुभिक्ष है, प्राणी वध उपसर्ग रहित।
बिन भोजन नित गगन है, नख केशों की वृद्धि रहित।
बिन छाया तनु चार मुखों से, निर्निमेष लोचन टिमकार।
सब विद्याओं के ईश्वर हो, दश केवल अतिशय सुखकार। 15 

जन्म समय पर मंदर मेरु, पर्वत जो विख्यात रहा। 
 जिस पर ही सौधर्म इन्द्र ने, प्रभु का कर अभिषेक कहा। 
वीर आपका नाम यही शुभ, धरती पर विख्यात रहे। 
हो आनंदित विस्मित होकर, देवों के भी इंद्र कहे। 16 

शैशव वय में क्रीड़ा करते, देव बालकों के संग आप। 
संगम देव तभी आ पहुँचा, देने को प्रभु को संताप। 
नाग रूप धर महा भयंकर, लखकर वीर न भीत हुए। 
महावीर यह नाम रखा तब, देव स्वयं सब मीत हुए। 17 

शास्त्र विषय संदेह धारकर, चले जा रहे दो मुनिराज। 
संजय विजय नाम है जिनके, गगन ऋद्धि ही बना जहाज। 
देख दूर से हर्षित होकर, लख कर ही निःशंक हुए। 
धन्य-धन्य है इनकी मति भी, सन्मति कहकर दंग हुए। 18

इस चतुर्थ काल में जितने, पहले जो तीर्थेश हुए।
कई कई राजाओं के संग, दीक्षित हो तपत्याग किए।
आप जानते थे यह भगवन, फिर भी आप न खेद किए।
मौन धारकर एकाकी हो, बारह वर्ष विहार किए। 19 । 

चौथी कषाय मात्र का जिनको, क्षयोपशम गत भाव रहा। 
हो प्रमत्त यदि बीच-बीच में, वर्धमान चारित्र रहा। 
इसीलिए तो नाम आपका, "वर्धमान” भी ख्यात हुआ
नाम न्यास में भी भावों, से न्यास बना यह ज्ञात हुआ। 20 

तप कल्याणक होने पर प्रभु, तप में ही संलीन हुए
एकाकी बन कर विहार कर, सहनशील योगी जु हुए।
उज्जैनी के मरघट पर जब, आप ध्यान में लीन हुए
उग्र उपद्रव सहकर के ही, नाम लिया "अतिवीर” हुए। 21

नाना विध बंधन ताडन पा, जो पर घर में बंधी पड़ी
पीड़ित होकर रोती रहती, कष्ट सहे हर घड़ी-घड़ी।
वीर प्रभू का दर्शन पाऊँ, भक्ति और उल्लास भरी
दर्शन पाकर वही चन्दना, भय-बन्धन से तब उभरी। 22

ज्ञानोत्सव होने पर प्रभु की, समवसरण सी सभा लगी
पाँच हजार धनुष ऊपर जा, चेतनता जब पूर्ण जगी।
मिथ्यादृष्टि जीवों को तव, मुख दर्शन का पुण्य कहाँ?
इसीलिए इतने ऊपर जा, शोभित होते बैठ वहाँ। 23 

हुआ मान से उद्धत है जो, सकल पुराण शास्त्र ज्ञाता
मानस्तम्भ बने जिन-बिम्बों, को लख इन्द्रभूति भ्राता।
मान रहित हो खड़े रहे ज्यों, भूल गये हों सब कुछ ही
छोड़ आपको अन्य पुरुष में, यह प्रभाव क्या होय कभी ?। 24

अन्तरंग में निज आतम से, विश्व चराचर देख रहे,
केवल ज्ञान साथ जो होता, वह अनन्त सुख भोग रहे।
है जिन! तव परमात्म रूप को, मान रहे जो इसी प्रकार
अहो! बताओ कैसे फिर वे, दुःखी रहेंगे किसी प्रकार। 25 

बाहर भीतर ईश! आप तो, पूर्ण रूप से भासित हो
तव चेतन के महा तेज से, तेज समूह पराजित हो।
ज्ञातृवंश के हे कुल दीपक!, ज्ञातापन चेतनता में
जो है वह प्रतिभासित होता, जो ना दिखता ना उसमें। 26 

 चेतन की गुण-पर्यायों में, तुम विशुद्धि युत होकर के
आतम में आतम को पाकर, सब विभाव को तज कर के।
निज शरीर को भी हे जिनवर!, वैभाविक ही देख रहे
दूजों को वह ही तन देखो !, सम्यगदर्शन हेतु लहे। 27 

तीन लोक में प्रभुता तेरी, तीन छत्र कह देते हैं
मद घमण्ड से रहित हुए जो, कैसे कुछ कह सकते हैं।
महा पराक्रम धारी सज्जन, इसी रीति से रहते हैं
इसीलिए तो वीर जितेन्द्रिय, भगवन तुमको कहते हैं। 28 

देखा जाता है लोभी जन, सिंहासन पर बैठन को
करें उपाय सैकड़ों जग में, मन में लोभ की ऐंठन हो।
सिंहासन का लाभ हुआ पर, आप चार अंगुल ऊपर
कहो आप सा निर्लोभी क्या, और कहीं हो इस भूपर। 29 

ऊपर जाकर बार-बार, फिर, फिर नीचे आते चामर
मायावी जन कुटिल मना ज्यों, मानो वक्रवृत्ति रखकर।
चमरों से शोभित प्रभु तन ये सबसे मानो कहता है
अन्य किसी का हृदय यहाँ पे, बिन माया ना रहता है। 30 

क्रोध विभाव भाव वाले जो, भव्य जीव संसृति में हैं
चेतन होकर के भी उनके, मुख पर तेज नहीं कुछ है।
वीर प्रभु तव मुख मण्डल का, तेज बताता भामण्डल
भव्य जनों के सप्त भवों की, गाथा गाता है प्रतिपल। 31 

तीन लोक के हो ईश्वर तुम, तुम जिनेश तुम वीर विभू
हास्य नहीं है रती नहीं है, तव चेतन में अहो प्रभू ।
फिर भी दिव्यध्वनि को सुनकर, भव्य जीव रति भाव धरें
तत्त्व ज्ञान पी-पीकर मानो, हो प्रसन्‍न मन हास्य करें। 32 

नाना विध वैडूर्य मणी की, हरित मणिमयी शाखायें
तव समीपता से ही तज दी, अरति शोक की बाधायें।
मानो इसीलिए उस तरु का नाम अशोक कहा जाता
क्या आश्यर्च आप भक्ति से, यदि मनुष्य शोभा पाता। 33

अरे-अरे ओ भविजन क्यों तुम, क्यों इतने भयभीत हुए
आत्मग्लानि से आत्मघात को, करने क्यों तैयार हुए।
अभय प्रदायी चरण कमल को, प्राप्त करो अरु अभय रहो
देव दुन्दुभी बजती-बजती, यही कह रही वीर प्रभो। 34 

पुष्प रूप में खिले जीव सब, भाव नपुंसक वेद धरें
तभी कभी नर से हर्षित हों, नारी संग भी हर्ष धरें।
देवेन्द्रों की पुष्प वृष्टि जो, प्रभु सम्मुख नित गिरती है
तीन वेद से सहित काम यह, गिरता है यह कहती है। 35

पुण्य प्रकृति तीर्थंकर से ही, भूमि रत्नमय स्वयं हुई
भवनवासि देवों के द्वारा, स्वच्छ दिख रही साफ हुई।
पुष्प फलों से भरी दिख रही, धान्यादिक से पूर्ण तथा
तीर्थंकर का गमन देखकर, भूनारी यह हँसे यथा। 36 

जिधर दिशा में गमन आपका, उसी दिशा में वायु बहे
अति सुगन्धमय पवन सूंधकर, अचरज करता विश्व रहे।
मन्द-मन्द अति जल वर्षा में, भी सुगन्ध सी आती है
वायु कुमार देव से सेवा, इन्द्राज्ञा करवाती है। 37 

देवों द्वारा पद विहार में, नभ में कमल रचे जाते
वही कमल फिर स्वर्णमयी हों, अरु सुगन्ध से भर जाते।
आप चरण के न्यास मात्र से, कुसुम इस तरह होते हैं
अदभुत क्‍या यदि आप ध्यान से, मन: कमल मम खिलते हैं। 38 

आप मुख कमल से हे भगवन! दिव्य ध्वनि जो खिरती है
मागध जाति देव से आधी, वही दूर तक जाती है।
इसीलिए वह अर्ध मागधी, कहलाती सुखकर भाती
तथा परस्पर में मैत्री भी, जीवों में देखी जाती। 39 

अरु विहार के समय गगन भी, निर्मल भाव यहाँ धरता
दशों दिशायें धूलि बिना ही, नभ चहुँ ओर सदा करता।
सभी ऋतृ के पुष्प फलों से, वृक्ष लधे इक संग दिखते
आओ-आओ इधर आप सब, देव बुलावा भी करते। 40 

नहीं कोई आशीष वचन हैं, हँसे देख कर बात नहीं
फिर भी तीर्थ प्रवर्तन होता, तीन जगत के नाथ यही।
देखो-देखो यही दिखाने, धर्म चक्र आगे चलता
अति प्रकाश चहुँ ओर फैलता, सभी दिशा जगमग करता। 41 

मेरा चित्त आप में हे प्रभु! लीन हुआ क्या पता नहीं
या फिर आप रूप की आभा, मन में आती पता नहीं।
कैसा क्‍या यह घटित हो रहा, नहीं पता कुछ मुझको देव!
आम गुठलियों को क्या गिनना रस चखने की इच्छा एव । 42 

भक्ति वही जो काम क्रोध की, अग्नि बुझाने वर्षा हो
मुक्ति वही जो संस्तुति करते, स्वयं आ रही हर्षित हो।
आप गुणों की पूर्ण प्राप्ति में, तुष्ट करे जो शक्ति वही
आप चेतना की आभा का, अनुभव करता ज्ञान वही। 43 

मैं राजा के निकट रह रहा, यही सोचकर नौकर भी
अपना मस्तक ऊँचा करके, गर्व धारकर चले तभी।
तीन लोक के नाथ आपके, चरण कमल भक्‍ती वाला
भक्त यहाँ निश्चिन्त बना यदि, क्या विस्मय प्रभु रखवाला। 44 

सत्य कहा है आप वीर ने, मुनि का एक अहिंसा धर्म
भीतर बाहर संयम पाकर, आप बढ़ाये उसका मर्म।
 उसी धर्म से अन्तरंग में, केवलज्ञान प्रकाश हुआ
यज्ञों की हिंसा रुक जाना, बाहर धर्म प्रभाव हुआ । 45 

सुख गुण की या ज्ञान गुणों की, किसी गुणों की भी पर्याय
एक समय की कणी मात्र ही, तव गुण की मुझमें आ जाय।
अपनी ही गुण-पर्यायों से, भीतर आप प्रकाशित हो
फिर भी मुझ जैसा कैसे यूं, तृष्णा पीड़ित रहे अहो। 46 

अति पवित्र जो चरण कमल हैं, वन्दनीय नित सदा रहे
उनको चित में धारणा करके, अपना मुख हम देख रहे।
अति उलल्‍लासित मम मन होता, किन्तु आप मुख दर्पण देख
आप सरीखा साम्य हमारे, मुख पर नहीं देख कर खेद। 47 

पहले आप द्रव्य संयम के, पथ पर खुद को चला दिए
तभी भाव संयम की निधि भी, आप स्वयं ही प्राप्त किए।
जो क्रम जाने विधि को जाने, क्‍या उल्लंघन कर सकता
महापुरुष का यह स्वभाव है, सूरज सम पथ पर चलता। 48 

होकर के सापेक्ष आप प्रभु, सबसे ही निरपेक्ष हुए
कर्म बन्ध से बद्ध मुक्त से, मुक्ती में रत बद्ध हुए।
होकर एक अनन्त भासते, इसमें कोई विरोध नहीं
आतम अनुशासन से युत हो, जिनशासन से युक्त वहीं। 49 

पहले नहीं आपको देखा, नहीं सुना है कभी कहीं
नहीं छुआ है कभी आपको, जानी महिमा कभी नहीं।
भक्ति सुरस से भरे हुये इस, मेरे मन में आप मुनीश
नहीं हुए प्रत्यक्ष तथापि, मति में राग अधिक क्यों ईश। 50 

तेरे वचन नीर को पीने, की इच्छा पी-पी कर भी
तृप्त नहीं होता मेरा मन, पुन: देखना लख कर भी।
दो ही मेरी मनो कामना, जब पूरण होंगी साक्षात्‌
मुक्ति कथा भी मेरी पूरी, हो जाएगी मेरी बात। 51 

कहा आपने जैसा जिनवर, मान उसे तप व्रत धरता
भव्यजनों की भक्ति का वह, पुण्य मोक्ष साधन बनता।
सुर सुख को जो चाह रहा हो, कर निदान यदि करता पुण्य
वही बन्ध का करण है नय, नहीं जानते जैनी पुण्य। 52 

है जिन! भक्ति आपकी नित ही, सम्यग्दर्शन कही गई
वही ज्ञान है वही चरित है, यह व्यवहारी बुद्धि रही।
रख अभेद बुद्धि से जिन में, तब तक यह व्यवहार करो
मुक्ति वधू का रमण आत्म सुख, जब तक ना तुम प्राप्त करो। 53 

मोहित करते आप रूप से, सभी जनों को हे निर्मोह!
सुन कर वचन और सुनने का, लोभ बढ़ाते हे निर्लोभ!।
फिर भी श्रेष्ठ पुरुष है कहते, श्रेष्ठ पुरुष केवल हैं आप
दोष गुणों के लिए हरे ज्यों, निशा चन्द्रमा से संताप । 54 

तुमको देता हूँ यह कहता, तब कोई कुछ देता है
किन्तु आप दें गुप्त रूप से, मौन धार यह देखा है।
ज्यों रवि सबका हित करता है, बिन इच्छा के बन्धु बना
उसी तरह भव्यों के हित में, तुम सम दाता कोई ना। 55 

फिर भी यदि तुम इच्छा करते, देने की मुझको कुछ भी
दे ही देना आप प्रभू जी, जो मेरे मन में कुछ भी।
दाता तुम सम और नहीं है, और नहीं याचक मुझ सा
चाह नहीं कुछ तुमसे चाहूँ, तुमको या बनना तुम सा। 56 

योगों को संकोचित करके, इस विधि चौदस की तिथि को
चौथे शुक्ल ध्यान को ध्याकर, आप विमुक्त किए खुद को।
पावापुर के पद्म सरोवर, पर संस्थित प्रभु होकर के
आप महा निर्वाण प्राप्त कर, ठहरे लोक शिखर जा के। 57 

अष्ट कर्म रिपु बाधक नाशक, हे प्रभु तुमको नमन करूँ
स्वर्ग मोक्ष सुख के हो दायक, हे प्रभु तुमको नमन करूँ।
आप कीर्ति गुण नायक जग में, हे प्रभु तुमको नमन करूँ
अन्तराय विघ्नों के वारक, हे प्रभु तुमको नमन करूँ। 58 

मन से सहित सकल इन्द्रिय के, तुम ही एक विजेता हो
जो गुण चाहें ऐसे मुनि के, एक मात्र तुम नेता हो।
घनी भूत जो कर्म शैल थे, उनको तुमने तोड़ दिया
सकल चराचर के ज्ञाता हो, निज में निज को जोड़ लिया। 59 

सिद्धगति के भूषण तुम हो, काम रहित हो तुम हो वीर
है अन्तिम जिन तीर्थंकर प्रभु, तुम प्रमाण मम हर लो पीर।
सभी दुखों के नाशक तुमको, देव हमारे तुम्हें नमन
गणधर और मुनीश्वर नमते, हे परमेश्वर तुम्हें नमन। 60 

आप तीर्थ के पुण्य नीर में, डूब डूब कर शुद्ध हुए
भव्य हुए जितने भी पहले, धो कलि पाप विशुद्ध हुए।
नाना नय उपनय अरु जिसमें, सप्त भंग की लहरें हों
ऐसे तीरथ में डुबकी हम, लेने में क्यों वंचित हों । 61 

बाल्य अवस्था में भी पालक, से प्रतिभासित होते आप
भर यौवन में भी मदमाते, काम सुभट को जीते आप।
पुण्यवान जो खड़े हुए हैं, संसृति सागर के तट पर
उन्हें सिद्धि में पहुँचाते थे, नमन आप को कर शिर धर। 62 

तीन लोक में उत्तम तुम हो, पूर्ण जगत में एक शरण
भव तरने को इक जहाज हो, श्रेष्ठ तुम्ही हो करूँ वरण।
चिन्तन में भी ध्यान समय भी, और कथा के करने में
तुमको याद करूँ मैं प्रणमूँ, चर्चा करूँ सदा ही मैं। 63 

भाव भक्ति से इस प्रकार जो, वीर प्रभू का यह संस्तव
हृदय कमल में धार आपको, करता सुनता तव वैभव।
विघ्नों को वह नष्ट करे अरु, इष्ट कार्य में रहे सफल
हर क्षण बढ़ते ज्ञान सुखों का, पाओ तुम "प्रणम्य” शिव फल। 64 

इसीलिए अब मोक्ष प्रदायी, साधन को मैं साध रहा। 

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